००-३०१-इसी पत्र से राक्षस का जीतना है-मुह्र की सहायता से रातस पर विजय प्राप्त करने या उसे पकड़ने का जो उपाय ' चणक्य ने सोचा था उसका प्रारंभ इस पत्र से होने वाला था। २११-मेरे जी की बात-जो मैं स्वयं चाहता था, मेरी हार्दिक इच्छा थी। २२५.२२६-चाणक्य कहते हैं कि अब इन पाँच राजाओं को मार डालने के लिए हमने लिख दिया है, इसलिए चित्रगुप्त अब उनका नाम अपने रजिस्टर से काट दें, क्योंकि अब उनके स्वामी यमराज भी इन लोगों की रक्षा कर नहीं सकते तब उन्हें इनका लेखा रखने की कोई आवश्यकता नहीं है ! २३०-अथवा न लिखू-चाणक्य को राक्षस के मित्र शकटदास से यह पत्र लिखवाना मावश्यक था और इन पाँच गजाओं का नाम लिखवाने से शकटदास शंका कर राक्षस से कुल वृत्तांत कह देता, इसलिए इस कमी को मौखिक संदेश कहला कर पूरा किया। २३३-२३४-संस्कृत और फारसी के विद्वानों के लिए यह बात . आज तक अक्षरशः टीक है। इसका कारण यही ज्ञात होता है कि इन भाषाओं के अध्ययन में लिखने का बहुत कम काम पड़ता है और पाठशाला तथा मदरसों में लिपि की ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। २३६-लिखनेवाले का और जिसको लिखा गया था, उनमें से किसी का नाम नहीं दिया गया था। २४६-२५०-मूल में चाणक्य ने सिद्धार्थक को भद्र कहा है। २५३-२५४-फाँसी देनेवाले को चाणक्य ने पहले ही से यह . संकेत बतलाकर आदेश दे दिया था कि जब कोई मनुष्य इस संकेत के साथ कुछ कहे तब उसके कथनानुसार भाचरण करना। राक्षस को फंसाने के लिए षड्यंत्र का यहीं से प्रारंभ हो गया। २५५-डर से भाग जायँ अर्थात् सिद्धार्थ क के क्रोध कहने पर फाँसी देनेवाले डरकर भाग. जायँ, जिसमें
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