पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१७९

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मुद्राराक्षस नाटक 'चंद्रम्संपूर्णमण्डलम्'-पाठ अधिक हस्तलिखित प्रतियों में मिला है। इसका चंद्रमसम् पूर्णमण्डलम्' या 'चंद्रम् असंपूर्ण मण्डलम् दो प्रकार से पदच्छेद कर सकते हैं। कुछ विद्वान् प्रथम को इन कारणों से मानते हैं कि (१) चंद्रग्रहण पूर्ण विंच होने पर होता है (२) पु. ६५० १४ में चाणक्य 'मौर्ये लक्ष्मीः स्थिरपदा कृता' कहता है और ( ३) पं० ११६ पृ०६ में 'चरसंपुण्णमण्डलम्मि' कहता है। एक विद्वान् ने यह भी लिखा है कि चाणक्य से उच्चकोटि के राज नीतिज्ञ स्वयं मंडल को अपूर्ण न कहेंगे। अब प्रत्येक पर विचार कीजिए (१) पूर्ण बिंब रहने ही पर चंद्रग्रहण होता है इससे यह संभव है पर नाटककार का ध्येय इससे उल्टा अर्थात् असंभाव्य बातों का दिखलाना है। २) जिस श्लोक का अंश उद्धृत है उसी के आगे चाणक्य कहता है कि 'अगृहीते राक्षसे स्थैर्यमुत्पादितं चन्द्रगुप्त- लक्ष्म्यः किं । इसके पहले पृ० ४ पं० ४ में चाणक्य से जीतिज्ञ 'शशलांच्छनस्य कलाम्' कह चुके हैं। साथ ही वाह्य स्थैर्य क्या लाम है जब राक्षसादि के षडयंत्रोंसे आंतरिक स्थैर्य से नहीं के बराबर हो रहा था, जैसा पृ० २४ पं० ३६ में विरोधक गतागतौ निरामिव खिद्यते श्रिया' और पृ. २६ पं० १४५ में 'मौर्यस्योरसि नाधुनापि कुरते कहता है । कामंदक के नीतिसार में राष्ट्र के सप्तांग इस प्रकार दिए गए हैं-स्वाम्यमात्यश्च राष्ट्रच दुर्ग कोशोबलं सुदृत् । परस्परोकारीदं सप्तांगं राष्ट्रमुच्यते । इन सातों अंगों को पूर्णता से पूर्णमण्डत समझा, जाता है पर चंद्रगुप्त के प्रति प्रजा की अपूर्ण राजभक्ति होने का संशय चाणक्य के हृदय में खल रहा था। (३) "पूर्णचन्द्र से कौन विरुद्ध है' कहकर चर निपुणक पूर्णता में कमी दिखा रहा है अर्थात अपूर्णता में पूर्णता का केवल अभास मात्र है। चाणक्य स्वयं. अपूर्णमंडल को उच्च कोटि के नीति धुरंधर होने से झूठ ही पूर्ण कहे : पर वे अपनी कमी को जानते थे और उसी की पूर्ति के लिए उसने.. -सारा नाटक खेला था। सूत्रधार तो नीतिज्ञ था भी नहीं। कुछ विद्वानों ने 'करग्रहः सकेतुः' से यह अर्थ लिया है कि क्रूर ग्रह (राक्षस ) केतु { मलयकेतु) के साथ।