पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१७८

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  • परिशिष्ट ख

. ४१-रसोई चढ़ना-चूल्हे पर कड़ाही, बटुआ आदि चढ़ाकर रसोई आदि पाक करना, जिससे यह मुहाविरा बन गया है। ४७-ज्योतिःशास्त्र के चौसठों अंगों-ज्योतिष अर्थात् प्रहनक्षत्र आदि की गति इत्यादि विषयक शास्त्र को ज्योतिःशास्त्र कहते हैं, जिसके बीस अंग और चालीस उयांग गर्गसंहिता में दिए गए हैं।

५१-५२-इस दोहे का संस्कृत मूल इस प्रकार है-

यूरप्रहः सकेतुश्चंद्रमसम्पूर्णमण्डलमिदानीम् । अभिभवितुमिच्छति बलात् रक्षत्येनं तु बुधयोगः॥ अन्वय -सावरग्रहः केतु:भसंपूर्णमण्डलम् चंद्रम् इदानीम् बलात् अमिभवितुम् इच्छति । बुधयोगः तु एनं रक्षति ।

अर्थ-क्रर ग्रह केतु चंद्रमा के अपूर्ण मंडल को बलात् प्रास काना

.. चाहता है पर बुधयोग उसकी रक्षा करता है । - चंद्रग्रहण केवल पूर्णिमा को होता है, जब चंद्रमंडल पूरा रहता ... है। अपूर्ण मंडल होने के कारण पूर्णिमा के अतिरिक्त अन्य तिथियों ! को चंद्रग्रहण होता ही नहीं। चंद्रमा का पास करनेवाला गहु है, केतु नहीं । जिस पूर्णिमा को बुधयोग रहता है, उसमें चंद्रग्रहण नहीं हो सकता। ऐसी असंभाव्य बाते लिखकर कवि करता है कि केतु बलात् अर्थात् बलपूर्वक असंभव को संभव करना चाहता है, जो नहीं हो सकता। साथ ही कवि केतु, अपूर्णमंडल चंद्र और बुधयोग शब्दों से नाटक की घटना और उसका फल व्यंजित करता है। कर ग्रह केत से म्लेच्छाधिपति मलयकेतु, अपूर्णमंडल चंद्र से चंद्रगुप्त ( जिसका मंडल अर्थात् अधिकार पूर्ण है क्योंकि वह चाणक्य के अधीन या उसका प्राज्ञानुवर्ती था ) और बुधयोग से चाणक्य को मित्रता (चद्र या चंद्रगुप्त से ) इंगित है। मून कवि ने यह श्लोक साहित्य और ज्योतिष दोनों की दृष्टि से लिखा है, इसलिए यही अर्थ. समुचित है। भारतेंदुजी ने भी यही भाव लेकर दोहा बनाया होगा क्योंकि, असंपूर्णमंडल के लिए विंब पूर न भए' लिखा है। इस अर्थ की पुष्टि • आगे का चाणक्य का वाक्य भी करता है कि 'हैं ! मेरे जीते ( अर्थात् बुधयोग रहते ) चंद्र को कौन बल से ग्रस सकता है ?