पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१७४

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परिशिष्ट ख १०३ कहकर शशिकला या चंद्रकला कहने का यह तात्पर्य है कि वह त्रियों के उायुक्त नाम है और उसे लेकर महादेवजी पार्वतीजी को भ्रम में डालना चाहते थे। पर पार्वती जी को कुछ शंका हो गई, जिसके निवारणार्थ उन्हें ने फिर कहा कि क्या यही नाम है !" यहाँ अनुबाद में त्रिपुरारी शब्द बढ़ाया गया है । इस प्रश्न पर भी महादेवजी उसी प्रकार का भ्रमपूर्ण उत्तर देते हैं कि "हाँ, यही नाम है, तुम जानती भी हो; फिर कैसे भूल गई। परंतु इप उत्तर से महादेवजी का काय सिद्ध नहीं हुआ और पार्वतीजी चंद्रकला शब्द का तथ्य समझ गई। तब वे कहती हैं कि 'नारी पृच्छामि नेन्दु अर्थात् 'नारिहि पूछत चंद्रहि नाहिं'। पार्वतजी के कहने का यह अर्थ है कि हम आरसे स्त्री ( के बारे में ) पूछती है न कि चंद्र के ( जिससे परिचित हैं )। पर महादेवजी सा अर्थ उन्हें भ्रा में डालने के लिए यो लगाते हैं कि पार्वतीजी कहती है कि नारी को (से) पूछती हैं न कि चंद्र को ( से )। इस प्रकार अर्थ लगाकर वे उत्तर देते हैं कि यदि चंद्र का प्रमाण ठीक नहीं है, वह झूठा है और तुम स्त्री को प्रमाण मानती हो तो विजया से ( जो स्त्री और तुम्हारी सखी है) पूछो। इस प्रकार गंगाजी को छिपाने के लिए जिश्च कूट बुद्ध से महादेवजी ने काम लिया है, वह तुम्हारी रक्षा करे। ___इस पद में शब्दालंकार वक्रोक्ति है । यह और इसके बद के पद दोनों मंगलाचरण हैं, जिन्हें कवि ने ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए पहले ही बनाकर रखा है । नांदी या मंगलपाठ के पदों से कवि नाटक की घटनामों का कुछ भाभास दिला देते हैं । जैसे इस पद के चंद्र (चंद्रगुप्त ) और छलि (शाठ्य, चाणक्य की कूटनीति ) शब्दों से इस नाटक की मुख्य घटना का आभास सा मिल जाता है। इस नाटक में वीर रस प्रधान है और अद्भुत उपप्रधान है। इस नाटक में मुख्यतया चाणक्य की वह कूटनीति दिखलाई गई है, जिससे उसने राक्षस को चंद्रगुप्त का साथ देने के लिए वाध्य किया है। चंद्रगुप्त नायक (घरोदात्त ) है पर चाणक्य ही नाटक का प्रधान पुरुष मालूम पड़ता है।