पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१७०

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परिशिष्ट क फूटहिं सो नवनंद बिनासे गयो मगध को राज ! चंद्रगुप्त को नासन चाह्यौ आपु नसे सह साज॥ जो जग में धन मान और बल अपुनो राखन होय। तो अपने घर में भूलेहू कूटि करौ मति कोय ॥३॥ ( दूसरे अंक की समाप्ति और तीमरे अंक के प्रारंभ में ) जग में तेई चतुर कहा। जो सब विधि अपने कारज को नीकी भाँति बनावै ॥ पढ़यो लिस्यो किन होइ जु पै नहिं कारज साधन जाने । ताही को मूरख या अग मैं सब कोक अनुमान ।। छल मैं पातक होत जदपि यह शास्त्रन में बहु गायो। पै अरि सो छल किए दोष नहिं मुनियन यह है बतायो ॥४॥ (तीसरे अंक की समाप्ति और चतुर्थ अंक के आरंभ में) ठुमरी] तिनको न कछू कबहूँ बिगरै, गुरु लोगन को कहनो को करें । जिनको गुरु पंथ दिखावत हैं ते कुपंथ मैं भूलि न पाँव धरै ॥ जिन को गुरु रच्छत आप रहैं ते बिगारे न बैरिन के विगरें। · गुरु को उपदेश सुनौ सा ही जग करज जासौ सबै सँभरें ॥५॥ (चतुर्थ अंक की ममाप्त और पंचम अंक के प्रारंभ में) [पूर्वी ] करि मूरख मित्र मिताई, फिर पछितैहो रे भाई!। अंत दगा खैही सिर धुनिही रहिही सबै गँवाई॥ मूरख जो कछु हितहु करे तो तामैं अंत पुराई । उलटो उलटो काज करत सब दैहैं अंत नसाई ॥ लाख करो हित मूरख सों पै ताहि न कछु समझाई। प्रत. बुराई सिर पै ऐहै रहि हो मुंह बाई ॥ फिर पछितैहौ रे भाई । ॥६॥