पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१६६

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प्रप्तम अंक राक्षस-(भाप ही प्राप) देखो, यह चाणक्य का सिखाया पढ़ाया मुझसे कैसी सेवकों की सी बातें करता है। नहीं, नहीं यह आप ही विनीत है । अहा! देखो चंद्रगुप्त पर डाह के बदले उलटा मनुराग होता है । चाणक्य सब स्थान पर यशस्वी है, क्योंकि- पाइ स्वामि सतपात्र जो मत्री मूरख होइ । तौह पावै लाम जस, इत तो पडित दाई ॥ मूरख स्वामी लहि गिरै चतुर सचिव हू हारि। नदी-तौर तरु जिमि नमत बीरन वे लहि वारि ॥ १५. चाणक्य-क्यों अमात्य राक्षस ! आप क्या चंदनदास का प्राण पचाया चाहते हैं ? राक्षस-इस में क्या संदेह है ? चाणक्य-पर अमात्य ! आप शस्त्र ग्रहण नहीं करते, इससे संदेह होता है कि मापने अभी राजा पर अनुग्रह नहीं किया। इससे जो वच ही चंदनदास का प्राण बचाया चाहत हों तो यह शस्त्र लीजिये। • राचस-सुनो विष्णुगुप्त ! ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि हम इस योग्य नहीं । विशेष कर के जब तक तुम शस्त्र ग्रहण किये हो व तक हमारे शस्त्र ग्रहण करने का क्या काम है ? चाणक्य-भला अमात्य ! मापने यह कहाँ से निकाला कि १८० हम योग्य है और आप अयोग्य हैं क्योंकि देखिए- रहत लगामहिं कसे अश्व की पीठ न छोड़त । खान पान मसनान भोग तजि मुख नहिं मोडत ॥ छुटे सब सुख पान नींद नहिं आवत नयनन । निसि दिन चौंकत रहत वीर सब भय परि निज मन ॥ यह हौदन यो सब छन कस्यो नृप गनगन भवरेखिये। रिपुदप-दूर कर प्रति प्रबल निन महात्म बल देखिये ॥ ॥ इन बातों से क्या! मापके शत्र ग्रहण किये बिना तो दास बचता भी नहीं। चिस-भाप ही भाप) १६०