पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१६५

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मुद्राराक्षस ना वह दुख चंदनदास को, जो कछु दियो दिखाय । सो सब मम ( लज्बा से कुछ सकुचाकर ) सो सब राजा चंद को तुमसों मिलन उपाय ॥ देखिए यह गजा भी श्राप से मिलने आप ही आते हैं। राक्षस-(आप ही आप ) अब क्या करें ? ( प्रगट ) हाँ! मैं देखें रहा हूँ। १४. [सेवकों के संग राजा पाता है ] राजा-(आप ही आप ) गुरुजी ने बिना युद्ध हो दुर्जय शत्र का कुल जीत लिया, इसमें संदेह नहीं । मैं तो बड़ा लज्जित हो रहा क्योंकि- है बिनु काम, लजाय करि नीचो मुख, भरि सोक । सोबत सदा निषंग में मम बानन के थोक। सोवहिं धनुष उतार हम, तदपि सकहिं जग जीति। ' जाके गुरु जागत सदा नीति-निपुन गत-भीति ॥ (चाणक्य के पास जाकर ) भार्य! चंद्रगुप्त प्रणाम करता है। चाणक्य-वृषल! अब सब असीस सच्ची हुई, इससे इन पूज्य १५ अमात्य राक्षस को नमस्कार करो। यह तुम्हारे पिता के पब मत्रिय में मुख्य हैं। राक्षस-(आर ही आप ) लगाया न इसने संबध । राजा -( राक्षस के पास जाकर ) पाये ! चंद्रगुप्त प्रणार करता है। राक्षस-( देख कर आप ही आप ) अहा ! यही चंद्रगुप्त है। होनहार पाको उदय, बालपने ही जोह। राज बहो बिन बाल गम जूयाधिप सम होइ। (प्रगट-महाराज ! जय हो। राजा-आर्य! तुम्हरे भाछत बहुरि गुरु मागत नौति प्रपीन । कहहु कहा या जमत में जाहि न अय हम कीन ||