पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१६४

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प्तिम अंक किन गजपति मरदन प्रबल सिंह पीरा दीन ? किन देवा निज बाहुबल पार समुद्रहिं कीन ! १चांडाल-परम नोतिनिपुण आपने तो..."। चाणक्य-अजी! ऐसा मत कहो, वरन् 'नन्दकुल द्वेषो देव ने' ११० यह कहो। राक्षस-(देख कर आप ही आप ) भरे ! क्या यही दुरात्मा वा महात्मा कौटिल्य है ! सागर जिमि बहु रत्नमय, तिमि सब गुन की खान । तोष होत नहिं देखि गुन, बैरी हुनिज जानि ।। चाणक्य- इख कर) अरे यही अमात्य राक्षस है ? जिस महात्मा ने- बहु दुख सों सोचत सदा, जागत रैन विहाय । ____ मेरी मति अरु चंद्र की सेननि दई पकाय । (परदे से बाहर निकल कर ) श्रजी अजी, अमात्य राक्षस! १२० मैं विष्णुगुप्त आपको दण्डवत् करता हूँ। ( पैर छूता है ) - राक्षस-अप ही आप ) अा मुझे श्रम त्य कहना तो देवन मुँहचढ़ाना है ( प्रकट ) अजी विष्णुगुप्त ! मैं चाण्डालों से छू गया हूँ, इससे मुझे मत छुओ। चाणक्य-अमात्य राक्षस! वह श्वपाक्त नहीं है वह भापका जाना सुना सिद्धार्थक नामा राजपुरुष ही है और दूसरा भी समिद्धार्थक नामा राजपुरुष हो है और इन्हीं दोनों द्वारा विश्वास उत्पन्न करके उस दिन शकटदास को धोखा देकर मैंने वह पत्र लिखवाया था। .. राक्षस-आप ही आप ; अहा! बहुत अच्छा हुआ कि १३० मेरा शकटदास पर से संदेह दूर हो गया। चाणक्य-बहुत कहाँ तक कहूँ- वे सब भद्रभटादि, वह सिद्धार्थक, वह लेस्व । बह भदंत, वह भूषणहु, वह नट आरत भेख ।।