पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१४७

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मुद्राराक्षस मम लेख नहिं यह तिमि कहैं मुद्रा छपी जब हाथ की ? विश्वास होत न शकट तजिहै प्रीति कबहूँ साथ की। . पुनि बैंचिहैं नृप चंद भूषण, कौन यह पतियाइहै? तासों भलो अब मौन रहनो, कथन ते पति जाइहै ॥ . मलयकेतु-आर्य ! हम यह पूछते हैं। राक्षस-जो पार्य हो उससे पूछो, हम अब पापकारी अनार्य गए हैं। मायकेतु- स्वामी-पुत्र तुव मौर्य, हम मित्रपुत्र सह हेत। पैही उत वाको दियो, इत तुम हमको देत॥ सचिवहु मे उत दास ही, इत तुम स्वामी श्राप । कौन अधिक फिर लोम जो तुम कौनो यह पाप १॥ राक्षस-(भाँखों में धाँसू भर के ) कुमार ! इसका निर्णय भाप ही ने कर दिया- स्वामी-पुत्र मम मौर्य, तुम मित्रपुत्र सह हेत। पैहैं उत वाको दियो, इत हम तुमको देत॥ सचिवहु मे उत दास ही, इत हम स्वामी श्राप । कौन अधिक फिर लोम जो हम कीतो यह पाप ॥ मजयकेतु-(चिट्ठी, पेटी इत्यादि दिखाकर ) यह सब क्या है राक्षस-(आँखों में आँसू भर के) यह सब चाणक्य ने किया दैव ने किया। निज प्रभु मौं करि नेह जे भृत्य समर्पत देह । तिन सों अपने सुत सरिस “सदा निबाहत नेह ।। ते गुनगाहक नृप सबै जिन मारे छन माहिं । ताही विधि को दोस यह औरन को कछु नाहि ॥ मलयकेतु-(क्रोध पूर्वक ) अनार्य ! अब तक छल किए जाते कि यह सब दैव ने किया। विष-कन्या दै पितु हत्यो प्रथम प्रीति उपमत । अब रिपु सों मिलि हम सबन बधन चहत ललचाय ॥