पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१४३

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मुद्राराक्षस नाती जिमि जे बनमे ते मरे, मिले अवसि बिलगाहिं। तिमि जे भति ऊँचे चढ़े, गिरिहैं, संसय नाहिं ॥ प्रतिहारी- आगे बढ़कर ) अमात्य ! कुमार यह विराजते हैं, आप जाइए। राक्षस- देखकर ) अरे कुमार यह बैठे हैं। लखत चरन को भोर हू, तऊ न देखत ताहि । अचल दृष्टि इक भोर हो, रही धुद्धि भवगाहि ॥ . कर पै धारि कपोल निज लसत भुको अवनीस । दुसह काज के भार बों मनहुँ नमित भो सीस॥ २८० (भागे बढ़कर ) कुमार की जय हो! मलयकेतु-मार्य ! प्रणाम करता हूँ। भासन पर विराजिए। (राक्षस बैठता है।) मलयकेतु-आर्य । बहुत दिनों से हम लोगों ने प्रापेको नहीं देखा। - राक्षस-कुमार ! सेना को आगे बढ़ाने के प्रबंध में फँसने के कारण हमको यह उपालंभ सुनना पड़ा। मलयकेतु-अमात्य | सेना के प्रयाण का आपने क्या प्रबंधन किया है, मैं भी सुनना चाहता हूँ। राक्षस-कुमार ! आपके अनुयायी राजा लोगों को यह आज्ञा २९ दिया है ('आगे खस अरु मगध' इत्यादि छंद पढ़ता है)। मलयकेतु- आप ही भाप ) हाँ ! जाना ! जो हमारे नाश करने के हेतु चंद्रगुप्त से मिले है वही हमको घेरे रहेगे । (प्रकाश ) आर्य! अब कुपुमपुर से कोई आता है या वहाँ जाता है कि नहीं ? राक्षस-प्रब यहाँ किसी के आने जाने से क्या प्रयोजन ! पाँच छ दिन में हम लोग ही वहाँ पहुँचेंगे। मलयकेतु-आप ही आप ) अभी सब खुल जाता है ( प्रगट ) जो यही बात है तो इस मनुष्य को चिट्ठी लेकर आपने कुसुमपुर क्यों भेजा था? ३०००