पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१३७

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६६ मुद्राराक्षम नाटक क्षपणक-(आप ही आप की भाँति) जो यह इतना आग्रह करता है तो कह दें ( प्रत्यक्ष) श्राव ! निरुपाय होकर कहना पड़ा । सुनो, मैं पहले कुसुमपुर में रहता था तब संयोग से मुझसे राक्षस से मित्रता हो गई। फिर उस दुष्ट राक्षस ने चुपचाप मेरे द्वारा विषकन्या का प्रयोग कराके बेचारे पर्वतेश्वर को मार डाला। मलयकेतु-आँखों में पानी भर के) हाय हाय ! राक्षस ने हमारे पिता को मारा, चाणक्य ने नहीं मरा । हा! भागुरायण-हाँ, तो फिर क्या हुश्रा ? क्षपणक-फिर मुझे राक्षस का मित्र जानकर उस दुष्ट चाणक्य ११० ने मुमको नगर से निकाल दिया। तब मैं राक्षस के यहाँ माया पर राक्षस ऐसा जालिया है कि अब मुझको ऐसा काम करने कहता है कि जिससे मेरा प्राण जाय। ____भागुरायण-भदंत ! हम तो यह समझते हैं कि पहले जो आधा राज दने कहा था, वह न देने को चाणक्य ही ने यह दुष्ट कर्म किया, राक्षस ने नहीं किया। क्षपणक-(कान पर हाथ रखकर ) कभी नहीं, चाणक्य तो विषकन्या का नाम भी नहीं जानत', यह घोर कर्म उसी दुर्बुद्धि राक्षस ही ने किया है। भागुरायण-हाय हाय ! बड़े कष्ट की बात है। लो मोहर तो १२० तुम को देते हैं पर कुमार को भी यह बात सुना दो। मलयकेतु-(आगे बढ़कर) सुन्यौ मित्र ! श्रुति-भेद-कर शत्रु कियो जो हाल। पिता मरन को मोहि दुख दुगुन भयो एहि काल ॥ क्षपणक-(आप ही आप ) मलयकतु दुष्ट ने यह बात सुन लिया तो मेरा काम हो गया । ( जाता है) . मलयकेतु-(दाँत पीसकर ऊपर देखकर ) अरे राक्षा! . जिन तो विश्वास करि सौंप्यो सब धन धाम ताहि मार दुख दै सबन साँचो किय निज नाम ।