५२ मुद्राराक्षस नाह और भी 'भारंभ पहिले सोच रखना वेश की करि लावहीं। इक बात मैं गर्मित बहुत फल गूढ़ भेद दिखावहीं ॥ कारन अकारन सोच फैली क्रियन को सकुचावहीं। जे करहिं नाटक बहुत दुख हम सरिस तेऊ पावहीं ॥ और भी वह दुष्ट ब्राह्मण चाणक्य- दौवारिक-(प्रवेश कर)जय जय। राक्षस-किसी भाँति मिलाया या पकड़ा जा सकता है। दौवारिक-अमात्य- राक्षस-(बाँए नेत्र के फड़कने का अपशकुन देखकर १ की आप) 'ब्राह्मण चाणक्य जय जय' और 'पकड़ा जा सब है अमात्य' यह उलटी बात हुई और उसी समय असगुन हुआ। तो भी क्या हुआ ? उद्यम नहीं छोड़ेगे (प्रकाश) भ क्या कहता है। दौवारिक-अमात्य ! पटने से करभक आया है सो आपसे मिक्ष चाहता है। राक्षस-अभी लाओ। 'दौवारिक-जो आज्ञा (बाहर करभक के पास जाकर, उसको सं ले आकर) भद्र ! मंत्री जी वह बैठे हैं, उधर जायो । ( जाता है। करभक-मंत्री को देखकर ) जय हो, जय हो! राक्षस-अजी करभक! आमो, आभो अच्छे हो ? बैठो। करमक-जो आज्ञा (पृथ्वी पर बैठ जाता है। राक्षस-(आप ही आप ) अरे ! मैंने इसको किस काम का भेर लेने को भेजा था, यह कार्य के आधिक्य के कारण भूला जाता ४ है (चिंता करता है)। 1 [बेंत हाथ में लेकर एक पुरुष पाता है ] पुरुष-हटे रहना-बचे रहना-बजी दूर रहो-दूर रहो, क्य नहीं देखते ?
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