पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१११

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४० मुद्राराक्षस नाख अथवा इसमें तो मुझे कुछ सोरना ही न चाहिए। क्योंकि-११॥ ...मम भागुरायन आदि भत्यन मलय राख्यौ घेरिकै । तिमि गए सिद्धारथक ऐहैं तेउ काज निवेरिकै ॥ अब लखहु करि छल-कहल र सो भेद बुद्धि उपायकै।' पर्वत जनन सों हम बिगारत राक्षसहि उलटायकै ॥ कंचुकी-(प्रवेश कर) हा सेवा बड़ी कठिन होती है। नृप सों, सचिव सों सब मुसाहेब गनन सों डरते रहै।। पुनि विटहु जे प्रति पास के तिनको कह्यो करते रहे। ।। मुख लखत बीतत, दिवस निसि भय रहत, संकित प्रान है निज-उदर-पूरन-हेतु सेवा वृत्ति श्वान समान हैं॥ ११ [चारों ओर घूमकर, देखकर ] अहा! यही मार्य चाणक्य का घर है। तो चलूँ (कुछ आ . बढ़कर और देखकर)।

अहाहा! यह राजाधिराज श्रीमत्री जी के घर की संपत्ति है-

कहुँ परे गोमय शुष्क, कहुँ सिज्ञ परी सोभा दै रही। कहुँ तिल, कहूँ जब रासि लागी बटुन जो भिच्छा लही ।। कहुँ कुछ परे, कहुँ समिध सूखत - भार सो ताके नयो । यह लखौ छप्पर महा जरजर होइ कैसो झुकि गयो । महाराज चंद्रगुप्त को बड़े भाग्य मे ऐसा मंत्री मिला है- बिन गुनहूँ के नृपन को धन हित गुरुजन धाय । - सूखो मुख करि झूठहीं बहु गुन कहहिं बनाय ॥ १३० पै जिनको तृष्णा नहीं ते न लबार समान । तिनसां तुन सम धनिक जन पावत कबहुँ न मान ॥ (देखकर डर से) अरे! आय चाणक्य यहाँ बैठे हैं, जिन्होंने- लोक धरषि चंद्रह कियो राजा, नंद गिराय । हत प्रात रवि के कढ़त जिमि ससि-तेज नसाय ॥ ( प्रगट दंडवत करके ) जय हो आर्य की, जय हो !! चाणक्य- देखकर ) कौन है ? बैहीनर ! क्यों आया है ?