तृतीय बंक राजा-(अ पड़ी आप ) गज उसी का नाम है जिसमें अपनी आज्ञा चले। दूसरे के भरोसे राज करना भी एक बोका ढोना है, क्योंकि- जो दूजे को हित करै तौ खोवै निज काज । जो खोयो निज काज तो कौन बात को राज ? दुजे ही को हित करै तो वह परबस मूड़। कठपुतरी सो स्वाद कछु पावै कबहुँ न कूढ़ ॥ और राज्य पाकर भी इस दुष्ट राक्ष्मी को संभालना बहुत कठिन है, क्योंकि कूर सदा भाखति पियहि, चंचल सहन सुभाव । नर-गुन-औगुन नहिं लखति. सज्जन-खल सम भाव ॥ डरति सूर सों, भार कहँ गनति न कछु रति हीन । बारनारि अरु लच्छमी कहो कौन बस कौन ? यद्यपि गुरु ने कहा है कि ' तू भूठी कलह करके कुछ समय तक स्वतंत्र होकर अपना प्रबंध आप कर ले' पर यह तो बड़ा पाप सा है। अथवा गुरुजी के उपदेश पर चलने से हम लोग तो सदा ४० ही स्वतंत्र हैं। जब लौं बिगारै काज नहिं तब लौं न गुरु कछु तेहि कहै । पै शिष्य जाइकुराह तो गुरु सौस अंकुस है रहै। तासों सदा गुरु-वाक्य-बस हम नित्र पर आधीन हैं। निर्लोभ गुरु से संतजन ही जगत में स्वाधीन हैं।. (प्रकाश ) अजी वैहीनर ! सुगांगप्रासाद का मार्ग दिखाओ। कंचुकी-इधर आइए, महाराज! इधर । राजा ( आगे बढ़ता है।) कंचुकी-महाराज : सुगांगप्रासाद की यही सीढ़ी है। राजा-( ऊपर चढ़कर दिशाओं को देखकर अहा! शरद ५० ऋतु की शोभा से सब दिशाएँ कैसी सुंदर हो रही हैं ! सरद बिमल ऋतु सोहई निरमल नील भकास । निसानाप पूरन उदित सोलह कला प्रकास ॥
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