और रामशेखर ने कपूरमंजरी, बालगमायण तथा बालभारत आदि नाटक
रचे थे। इसके बाद धनन्जय ने दश रूपक नामक लक्षया ग्रंथ लिखा।
इसके अनन्तर मुसलमानों के आक्रमणों का प्रारंभ होने से भारत में राजनीतिक अव्यवस्था के कारण नाटकों का ह्रास होने लगा तथा कुछ साधारण कोटि के नारकों की रचना होने के अनन्तर इस प्रकार के ग्रंथो के प्रसायन का अंत हो गया। इसके अनन्तर मुसलमानों के समय में गटय.. कल का बिलकुल अभाव ही रहा और पुनः जब नाटकों की रचना का प्रारंभ हुआ तब वह आधुनिक प्रान्तीय भाषाओं में हुश्रा।
हिंदी में नाटकों की कमी है। नेवाज कवि का शकुन्तला नाटक, हृदयराम का हनु नाटक, ब्रजवासीदास का प्रबोध चंद्रोदय नाटक और देव का, देवमाया- प्रयंव नाटक नाट्यकला की दृष्टि से नाटक नहीं कहे जा सकते । मागज विश्वनाथसिंह कृत श्रानन्दाघुनन्दन किसी प्रकार नाटक की सीमा के भीतर आ जाते हैं। गणेश कवि का प्रद्युम्न-विजय नाटक भी इसी अन्तिम काटि का है। भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र लिखते हैं कि हिन्दी का पहला नाटक उन्हीं के पिता बाबू गोपालचन्द्र जी का नहुष नारक है। इसके अनन्तर राजा लक्ष्यण सिंह ने शकुन्तला का अनुवाद किया। परन्तु हिन्दी में भारतेंदु बी की नाटक-रचना से ही नाटकों का प्रारम्भ माना जाता है। इन्होंने लगभग बीस नाटों की रचना की, जिसमें मौलिक अोर अनुवादित देनों ही हैं। इनमें से अनेक समय समय पर खेले भी गए हैं।
लाला श्रीनिवासदास कृत स्वधीः-प्र-मोहिनी और संयोगिता-स्वयत्रर,
केशयम का सात-सुबल और शमशाइसीसन तथा पन्डित बदरी-
नामवण चौधरी कृत भात सोनार। नाटक अच्छे हैं पर संमोगितास्वयंवर
को छोड़ कर सभी इाने ड़े हैं कि अमितीत नहीं ह सकते । इनके अतिरिक्त
बाबू तोताराम कृत केटो कृतांत तथा पं० बालकृष्ण भट्ट कृत नाटकों का..
शेत्र पार नहीं है। पं. अम्बिकादत्त व्यास, पण्डित प्रतापनारायण
मिल, मो. सकावाण प्रादि के ना:कों के विपर में भी यही कहा जा सकता.
है। बा. राधाकुण्ड टास के प्रताप नार का विशेष अ.दर हुआ र