पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/९५

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खण्ड १] शाङ्करमाष्यार्थ प्यास, कर्मभिश्च यदा यस्मिन्काले पश्य- कर्मोद्वारा सेवित अन्य-वृक्षरूप ति ध्यायमानोऽन्यं वृक्षोपाधि- उपाधिसे विलक्षण ईश्वर यानी भूख, शोक, मोह और जरा-मृत्यु लक्षणाद्विलक्षणमीशमसंसारिण- आदिसे अतीत संसारधर्मशून्य मशनायापिपासाशोकमोहजरा- सम्पूर्ण जगत्के स्वामीको 'मैं यह मृत्यवतीतमीशं सर्वस्य जगतो- सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित और सबके ऽयमहमस्म्यात्मा सर्वस्य समः लिये समान आत्मा ही हूँ, अविद्या- सर्वभूतस्थो नेतरोऽविद्याजनितो- जनित उपाधिसे परिच्छिन्न दूसरा मायात्मा नहीं हूँ' इस प्रकार देखता पाधिपरिच्छिन्नो मायात्मति है तथा उसकी महिमा यानी विभूति महिमानं च जगद्रूप- जगत्रूप विभूतिको 'यह इस मस्यैव मम परमेश्वरस्येति यदैवं परमेश्वरखरूप मेरी ही है' इस प्रकार [ जानता है ] उस समय द्रष्टा तदा चीतशोको भवति वह शोकरहित हो जाता है- सर्वस्माच्छोकसागराद्विप्रमुच्यते सम्पूर्ण शोकसागरसे मुक्त हो जाता कृतकृत्यो भवतीत्यर्थः ॥२॥ है अर्थात् कृतकृत्य हो जाता है ।।२।। अन्योऽपि मन्त्र इममेवार्थमाह दुसरा मन्त्र भी इसी बातको सविस्तर - विस्तारपूर्वक बतलाता है- यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्ण कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् । तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ॥ ३ ॥ जिस समय द्रष्टा सुवर्णवर्ण और ब्रह्माके भी उत्पत्तिस्थान उस जगत्कर्ता ईश्वर पुरुषको देखता है उस समय वह विद्वान् पाप-पुण्य दोनोंको त्यागकर निर्मल हो अत्यन्त समताको प्राप्त हो जाता है ॥ ३ ॥