८४ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ वृक्षं परिषस्वजाते परिष्वक्त- वृक्षपर आलिङ्गन किये हुए हैं, अर्थात् फलोपभोगके लिये पक्षियोंके वन्तौ सुपर्णाविवैकं वृक्षं फलोप- समान एक ही वृक्षपर निवास भोगार्थम् । करते हैं। अयं हि वृक्ष ऊर्ध्वमूलोवा अव्यक्तरूप मूलसे उत्पन्न हुआ सम्पूर्ण प्राणियोंके कर्मफलका आश्रय- क्शाखोऽश्वत्थोऽव्यक्तमूलप्रभवः भूत यह क्षेत्रसंज्ञक अश्वत्थवृक्ष क्षेत्रसंज्ञकः सर्वप्राणिकर्मफला- ऊपरको मूल और नीचेकी ओर शाखाओंवाला है । उस वृक्षपर श्रयस्तं परिष्वक्तौ सुपर्णाविवा- । अविद्या, काम, कर्म और वासनाके विद्याकामकर्मवासनाश्रयलिङ्गो- आश्रयभूत लिङ्गदेहरूप उपाधिवाले जीव और ईश्वर दो पक्षियोंके समान पाध्यात्मेश्वरौ । तयोः परिष्वक्त- 'आलिङ्गन किये निवास करते हैं । इस प्रकार आलिङ्गन करके रहने- योरन्य एका क्षेत्रज्ञो लिङ्गो- वाले उन दोनोंमेंसे पाधिवृक्षमाश्रितः पिप्पलं कम- लिङ्गोपाधिरूप वृक्षको आश्रित करनेवाला क्षेत्रज्ञ पिप्पल यानी निष्पन्नं सुखदुःखलक्षणं फलं अपने कर्मसे प्राप्त होनेवाला सुख- स्वाद्वनेकविचित्रवेदनास्वादरूपं दुःखरूप फल, जो अनेक प्रकारसे विचित्र अनुभवरूप खादके कारण स्वाद्वत्ति भक्षयत्युपभुङ्क्तेऽविवे- स्वादु है, खाता-भक्षण करता कतः। अनश्नन्नन्य इतर ईश्वरो यानी अविवेकवश भोगता है। किन्तु अन्य-दूसरा, जो नित्य शुद्ध- नित्यशुद्धबुद्धमुक्तखभावः सर्वज्ञः बुद्ध-मुक्तखरूप सर्वज्ञ मायोपाधिक सर्वसत्त्वोपाधिरीश्वरो नानाति । ईश्वर है, उसे ग्रहण न करता हुआ नहीं भोगता । यह तो प्रेरयिता ह्यसावुभयो ज्य- साक्षित्वरूप सत्तामात्रसे भोक्ता और
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