पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/८८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक२ शक्रोति । घटादीनामन्यावभास- कर सकता, क्योंकि घटादि पदार्थोंमें कत्वादर्शनानारूपाणां चादि- दूसरोंको प्रकाशित करना नहीं देखा जाता तथा प्रकाशखरूप सूर्य त्यादीनां तद्दर्शनात् ॥१०॥ आदिमें वह देखा जाता है ॥ १० ॥ यत्तज्ज्योतिषां ज्योतिब्रह्म जो ब्रह्म ज्योतियोंको ज्योति है, तदेव सत्यं सर्व तद्विकारं वही सत्य है तथा सब कुछ उसीका विकार है जो विकार केवल वाचारम्भणं विकारो नामधेय- वाणीका आरम्भ और नाममात्र है मात्रमनृतमितरदित्येतमर्थ विस्त- अतः अन्य सभी मिथ्या है- ऊपर विस्तार और हेतुपूर्वक कहे हुए रेण हेतुतः प्रतिपादितं निगमन- इस अर्थका इस निगमनस्थानीय स्थानीयेन मन्त्रेण पुनरुपसंहरति। मन्त्रसे पुनः उपसंहार करते हैं- बाका सर्वव्यापकत्व ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण । अधोवं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ॥१॥ यह अमृत ब्रह्म ही आगे है, ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायीं- बायीं ओर है तथा ब्रह्म ही नीचे-ऊपर फैला हुआ है । यह सारा जगत् सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है ॥ ११ ॥ प्रयोक्तलक्षणमिदं यत्पुर- यह जो अविद्यामयी दृष्टिवालों- स्तादग्रेब्रह्मैवाविद्यादृष्टीनां प्रत्यव- को सामने दिखायी दे रहा है वह उपर्युक्त लक्षणोंवाला ब्रह्म ही है । भासमानं तथा पश्चाद्ब्रह्म तथा इसी प्रकार पोछे भी ब्रह्म है, दायीं दक्षिणतश्च तथोत्तरेण तथैवाघ- और बायीं ओर भी ब्रह्म है तथा