मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ स द्यात्मा तत्रस्थो मनोवृत्ति वहाँ ( हृदयाकाशमें ) स्थित भिरेव विभाव्यत इति मनोमयो वही आत्मा मनोवृत्तिसे हो अनुभव किया जाता है; इसलिये मनरूप मनउपाधित्वात्प्राणशरीरनेता उपाधिवाला होनेसे वह मनोमय है। प्राणश्च शरीरं च प्राणशरीरं तथा प्राणशरीरनेता- [-प्राण और तस्यायं नेता स्थूलाच्छरीराच्छ- शरीरका नाम प्राणशरीर है, उसे यह रीरान्तरं प्रति । प्रतिष्ठितोऽव- ले जानेवाला है । यह हृदय अर्थात् एक स्थूल शरीरसे दूसरे शरीरमें स्थितोऽन्ने भुज्यमानानविपरिणा- बुद्धिको उसके पुण्डरीकाकाशमें मे प्रतिदिनमुपचीयमानेऽपचीय- आश्रित कर अन्न यानी खाये हुए अन्नके परिणामरूप और निरन्तर माने च पिण्डरूपान्ने हृदयं बुद्धिं बढ़ने-घटनेवाले पिण्डरूप अन्न पुण्डरीकच्छिद्रे संनिधाय समव- ( अन्नमय देह ) में स्थित है, क्योंकि स्थाप्य । हृदयावस्थानमेव ह्यात्मनः हृदयमें स्थित होना ही आत्माकी स्थिति है, अन्यथा अन्नमें आत्माकी स्थितिन द्यात्मनः स्थितिरन्ने । स्थिति नहीं है। तदात्मतत्त्वं विज्ञानेन धीर-विवेकी पुरुष शास्त्र विशिष्टेन शास्त्राचार्योपदेशजनि- और आचार्यके उपदेशसे प्राप्त तथा तेन ज्ञानेन शमदमध्यानसर्व- शम, दम, ध्यान, सर्वत्याग एवं वैराग्यसे उत्पन्न हुए विशेष ज्ञानद्वारा त्यागवैराग्योद्भुतेन परिपश्यन्ति उस आत्मतत्त्वको सर्वत्र परिपूर्ण सर्वतः पूर्ण पश्यन्त्युपलभन्ते देखते यानी अनुभव करते हैं, जो धीरा विवेकिनः आनन्दरूपं आनन्दस्वरूप-सम्पूर्ण अनर्थ, दुःख और आयाससे रहित, सुखस्वरूप सर्वानर्थदुःखायासपहीणममृतं एवं अमृतमय सर्वदा अपने अन्तः- यद्विभाति विशेषेण खात्मन्येव करणमें ही विशेषरूपसे भास भाति सर्वदा ॥ ७॥ रहा है ।। ७॥
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