पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/६७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ नादिनिवृत्त्यर्थम् । गुहायां शरीरे की आशंका निवृत्त करनेके लिये है। जो सुषुप्ति-अवस्थामें गुहा- हृदये वा स्वापकाले शेरत इति शरीर अथवा हृदयमें शयन करते हैं वे गुहाशय तथा विधाताद्वारा गुहाशयाः, निहिताः स्थापिता प्रत्येक प्राणीमें निहित स्थापित ये सात-सात पदार्थ [ इस पुरुषसे धात्रा सप्त सप्त प्रतिप्राणिभेदम् । ही उत्पन्न हुए हैं ] । यानि चात्मयाजिनां विदुषां इस प्रकार जो भी आत्मयाजी कर्माणि कर्मफलानि चाविदुषां विद्वानोंके कर्म और कर्मफल तथा च कर्माणि तत्साधनानि कर्म- अज्ञानियों के कर्म, कर्मफल और फलानि च सर्व चैतत्परमादेव उनके साधन हैं वे सब उस परम पुरुषात्सर्वज्ञात्प्रसूतमिति प्रक- पुरुषसे ही उत्पन्न हुए हैं-यह इस ग्णार्थः॥ ८॥ प्रकरणका अर्थ है ॥ ८ ॥ पर्वत, नदी और ओषधि आदिका ब्रह्मजन्यत्व अतः समुद्रा गिरयश्च सर्वे- ऽस्मात्स्यन्दन्ते सिन्धवः सर्वरूपाः । अतश्च सर्वा ओषधयो रसश्च येनैष भूतैस्तिष्ठते ह्यन्तरात्मा ॥ ६ ॥ इसीसे समस्त समुद्र और पर्वत उत्पन्न हुए हैं। इसीसे अनेक रूपोंवाली नदियाँ बहती हैं; इसीसे सम्पूर्ण ओषधियाँ और रस प्रकट हुए हैं, जिस ( रस ) से भूतोंसे परिवेष्टित हुआ यह अन्तरात्मा स्थित होता है |॥ ९॥ अतः पुरुषात्समुद्राः सर्वे क्षारा इस पुरुषसे ही क्षारादि सात द्याः, गिरयश्च हिमवदादयोऽस्मा- समुद्र और इसीसे हिमालय आदि देव पुरुषात्सर्वे । स्यन्दन्ते स्रवन्ति । समस्त पर्वत उत्पन्न हुए हैं। गङ्गा