पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५५

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खण्ड १] शाङ्करमाध्यार्थ [ वह अक्षर ब्रह्म ] निश्चय ही दिव्य, अमूर्त, पुरुष, बाहर-भीतर विद्यमान, अजन्मा, अप्राण, मनोहीन, विशुद्ध एवं अपने कार्यवर्गकी अपेक्षा श्रेष्ठ अक्षर ( अव्याकृत प्रकृति ) से भी उत्कृष्ट है ॥२॥ दिव्यो द्योतनवान्स्वयंज्यो [ वह अक्षरब्रह्म ] स्वयंप्रकाश होनेके कारण दिव्य-प्रकाशित तिष्ट्वात् । दिवि वा स्वात्मनि होनेवाला है, अथवा दिवि- भवोऽलौकिको वा । हि यस्माद- अपने खरूपमें ही स्थित या अलौकिक है; क्योंकि वह अमूर्त- मूर्तः सर्वमूर्तिवर्जितः पुरुषः पूर्णः सब प्रकारके आकारसे रहित, पुरिशयो वा, दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुष-पूर्ण अथवा शरीररूप पुरमें । शयन करनेवाला, सबाह्याभ्यन्तर- वाहर और भीतरके सहित सर्वत्र पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरः सह । वर्तमान और अज-जो किसीसे बाह्याभ्यन्तरेण वर्तत इति । उत्पन्न न हो-ऐसा है; क्योंकि | अपनेसे भिन्न कोई उसके जन्मका अजो न जायते कुतश्चित्स्वतोऽ- ' निमित्त है ही नहीं; जिस प्रकार कि जलसे उत्पन्न होनेवाले बुबुदों- न्यस्य जन्मनिमित्तस्य चाभावात् का कारण वायु आदि है तथा यथा जलबुद्बुदादेर्वाय्वादि, घटाकाशादि भेदोंका हेतु घट आदि पदार्थ हैं [ उसी प्रकार उस यथा नभःसुषिरभेदानां घटादि । अजन्माके जन्मका कोई भी कारण सर्वभावविकाराणां जनिमूलत्वात् नहीं है ] । वस्तुके सारे विकारोंका मूल जन्म ही है; अतः उस (जन्म) तत्प्रतिपधेन सर्वे प्रतिषिद्धा' का प्रतिषेध कर दिये जानेपर वे सभी प्रतिषिद्ध हो जाते हैं। क्योंकि भवन्ति । सवाद्याभ्यन्तरो यजोऽ- 'वह परमात्मा सबाद्याभ्यन्तर अज तोऽजरोऽमृतोऽक्षरो ध्रुवोऽभय है इसलिये वह अजर, अमर, अक्षर, ध्रुव और भयशून्य है- इत्यर्थः। तात्पर्य है। -- -यह इसका