खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ तानि कवयो मेधाविनो वसिष्ठा- अग्निहोत्रादि कोंको कवियों अर्थात् दयो यान्यपश्यन्दृष्टवन्तः। वसिष्टादि मेधावियोंने देखा था, वही पुरुषार्थका एकमात्र साधन यत्तदेतत्सत्यमेकान्तपुरुषार्थमाध- होने के कारण यह सत्य है । वे ही नत्वात् । तानि च वेद- वेदविहित और ऋषिदृष्ट कर्म विहितान्यपिदृष्टानि कर्माणि त्रेतामें-[ ऋग्वेदविहित ] हौत्र, त्रेतायां त्रयीसंयोगलक्षणायां [ यजुर्वेदोक्त ] आध्वर्यत्र और होत्राध्वर्यबौद्गात्रप्रकारायामधि- सामवेदविहित ] औद्गात्र ही जिसके प्रकारभेद हैं उस अधि- करणभूतायां बहुधा बहुप्रकारं करणभूत त्रयीसंयोगरूप त्रेतामें मन्ततानि प्रवृत्तानि कर्मिभिः अनेक प्रकार सन्तत-प्रवृत्त हुए, क्रियमाणानि त्रेतायां वा युगे अथवा कर्मठोंद्वारा किये जाकर प्रायशः प्रवृत्तानि । प्रायशः त्रेतायुगमें प्रवृत्त हुए । अतो यूयं तान्याचरथ अतः सत्यकाम यानी यथाभूत निवर्तयत नियतं नित्यं सत्य- कर्मफलकी इच्छावाले होकर तुम उनका नियत-नित्य आचरण करो। कामा यथाभूतकर्मफलकामाः यही तुम्हारे सुकृत-स्वयं किये हुए मन्तः । एष वो युष्माकं पन्था कोंके लोकको प्राप्तिके लिये मार्ग मार्गः सुकृतस्य स्वयं निर्वर्तितस्य है । फलके निमित्तसे लोकित, दृष्ट कर्मणो लोके,फलनिमित्तं लोक्यते अथवा भोगा जाता है इसलिये दृश्यते भुज्यत इति कर्मफलं कर्मफल 'लोक' कहलाता है; उस लोक उच्यतेः तदर्थ तत्प्राप्तय ( कर्मफल ) के लिये अर्थात् उसकी प्राप्तिके लिये यही मार्ग है। तात्पर्य एप मार्ग इत्यर्थः। यान्येतानि है कि वेदत्रयीमें विहित जो ये अग्निहोत्रादीनित्रय्यां विहितानि अग्निहोत्र आदि कर्म हैं वे ही यह कर्माणि तान्येष पन्था अवश्य- मार्ग यानी अवश्य फलप्राप्तिका फलप्राप्तिसाधनमित्यर्थः॥१॥ साधन हैं ॥१॥ यह
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