पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/३०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ य जो सबको [ सामान्यरूपसे ] जाननेवाला और सबका विशेषज्ञ है तथा जिसका ज्ञानमय तप है उस [ अक्षरब्रह्म ] से ही यह ब्रह्म (हिरण्यगर्भ ), नाम, रूप और अन्न उत्पन्न होता है ॥ ९ ॥ उक्तलक्षणोऽक्षराख्यः जो ऊपर कहे हुए लक्षणोंवाला सर्वज्ञः सामान्येन सर्वजानातीति अक्षरसंज्ञक ब्रह्म सर्वज्ञ-सबको । सामान्यरूपसे जानता है, इसलिये सर्वज्ञः। विशेषण सर्व वेत्तीति सर्वज्ञ और विशेषरूपसे सब कुछ सर्ववित् । यस्य ज्ञानमयं ज्ञान- जानता है इसलिये सर्ववित् है, विकारमेव सार्वज्यलक्षणं तपो जिसका ज्ञानमय अर्थात् सर्वज्ञतारूप नायासलक्षणं तसायथोक्तात् ज्ञानविकार ही तप है-आयास- रूप तप नहीं है उस उपर्युक्त सर्वज्ञादेतदुक्तं कार्यलक्षणं ब्रह्म सर्वज्ञसे ही यह पूर्वोक्त हिरण्यगर्भ- हिरण्यगर्भाख्यं जायते । किं च संज्ञक कार्यब्रह्म उत्पन्न होता है । नामासो देवदत्तो यज्ञदत्त इत्यादि- तथा उसीसे पूर्वोक्त मन्त्रके क्रमानु- लक्षणम् , रूपमिदं शुक्लं नील- सार यह देवदत्त-यज्ञदत्त इत्यादि नाम, यह शुक्ल-नील इत्यादि रूप मित्यादि, अन्नं च व्रीहियवादि- । तथा व्रीहि-यवादिरूप अन्न उत्पन्न लक्षणं जायते पूर्वमन्त्रोक्तक्रमण; होता है । अतः पूर्वमन्त्रसे इसका इत्यविरोधो द्रष्टव्यः॥९॥ अविरोध समझना चाहिये ॥९॥ इत्यथर्ववेदोयमुण्डकोपनिषद्भाष्ये प्रथममुण्डके प्रथमः खण्डः ॥ १ ॥