पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२८

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२० मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ [ ज्ञानरूप ] तपके द्वारा ब्रह्म कुछ उपचय ( स्थूलता) को प्राप्त हो जाता है, उसीसे अन्न उत्पन्न होता है । फिर अन्नसे क्रमशः प्राण, मन, सत्य, लोक, कर्म और कर्मसे अमृतसंज्ञक कर्मफल उत्पन्न होता तपसा ज्ञानेनोत्पत्तिविधिज्ञ- उत्पत्तिविधिका ज्ञाता होनेके कारण तप अर्थात् ज्ञानसे भूतोंका कारण- तया भूतयोन्यक्षरं ब्रह्म चीयत रूप अक्षरब्रह्म उपचित होता है; अर्थात् इस जगत्को उत्पन्न करनेकी उपचीयत उत्पिपादयिषदिदं इच्छा करते हुए वह कुछ स्थूलताको प्राप्त हो जाता है. जैसे अङ्कुर- रूपमें परिणत होता हुआ बीज जगदङ्कुरमिव बीजमुच्छ्नतां स्थल हो जाता अथवा पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छाबाला पिता हर्षसे गच्छति पुत्रमिव पिता हर्षेण | उल्लसित हो जाता है । एवं सर्वज्ञतया सृष्टिस्थिति- इस प्रकार सर्वज्ञ होने के कारण सृष्टि स्थिति और संहार-शक्तिकी संहारशक्तिविज्ञानवत्तयोपचितात् विज्ञानवत्तासे वृद्धिको प्राप्त हुए ततो ब्रह्मणोऽन्नमद्यते भुज्यत उस ब्रह्मसे अन्न-जो खाया यानी भोजन किया जाय उसे अन्न इत्यन्नमव्याकृतं साधारणं संसा- कहते हैं, वह सबका साधारण रिणां व्याचिकीर्षितावस्थारूपेण कारणरूप अव्याकृत संसारियोंकी व्याचिकीर्षित ( व्यक्त की जाने- अभिजायत उत्पद्यते । ततश्च वाली ) अवस्थारूपसे उत्पन्न होता अव्याकृताद्वयाचिकीर्षितावस्थातः है । उस अव्याकृतसे यानी व्याचि- कीर्षित अवस्थावाले अन्नसे प्राण- अन्नात्प्राणो हिरण्यगर्भो ब्रह्मणो हिरण्यगर्भ यानी ब्रह्मकी ज्ञान और क्रियाशक्तियोंसे अधिष्ठित, व्यष्टि ज्ञानक्रियाशक्त्यधिष्ठितजगत्सा- जीवोंका समष्टिरूप तथा अविद्या, धारणोऽविद्याकामकर्मभूतसमु- काम, कर्म और भूतोंके समुदायरूप