पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२३

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ तस्मादिह परां विद्यां सविशेषणेन यहाँ 'यत्तदद्रेश्यम्' इत्यादि विशेषणों- से विरोपित अक्षरब्रह्मका निर्देश अक्षरेण विशिनष्टि यत्तदद्रेश्यम् करते हुए उस परा विद्याको विशेषित करते हैं । आगे जो कुछ इत्यादिना । वक्ष्यमाणं वुद्धी

कहना है उसे अपनी बुद्धि में

बिठाकर 'यत्तद्' इत्यादि वाक्यसे मंहृत्य सिद्धवत्परामृश्यते- उसका सिद्ध वस्तुके समान उल्लेख यत्तदिति । करते हैं- परविद्याप्रदर्शन यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुःश्रोत्रं तदपाणि- पादम् नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनि परिपश्यन्ति धीराः ॥ ६ ॥ वह जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण और चक्षुःश्रोत्रादिहीन है, इसी प्रकार अपाणिपाद, नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यन्त सूक्ष्म और अव्यय है तथा जो सम्पूर्ण भूतोंका कारण हैं उसे विवेकी लोग सब ओर देखते हैं ॥ ६ ॥ अद्रेश्यमदृश्यं सर्वेषां बुद्धी- जो अदृश्य-अदृश्य अर्थात् समस्त ज्ञानेन्द्रियोंका अ- न्द्रियाणामगम्यमित्येतत् । दृशेब- विषय है, क्योंकि बाहरको प्रवृत्त हुई दृक्शक्ति पञ्चज्ञानेन्द्रियरूप द्वारवाली हिःप्रवृत्तस्य पञ्चेन्द्रियद्वारकत्वात् । है; अग्राद्य अर्थात् कर्मेन्द्रियोंका अविषय है; अगोत्र-गोत्र अन्वय अग्राह्यं कर्मेन्द्रियाविषयमित्येतत् । किसी अन्य अगोत्रं गोत्रमन्धयो मूलमित्य- अर्थके वाचक नहीं हैं [अर्थात् इनका एक ही अर्थ है ] अतः नान्तरमगोत्रमनन्वयमित्यर्थः। अगोत्र यानी अनन्वय है, क्योंकि उस वह अथवा मूल-- -ये