खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ विधिवद्विशेषणादुपसदनविधेः यह जाना जाता है कि इनसे पूर्व आचार्योंमें [ गुरूपसदनका ] कोई पूर्वेषामनियम इति गम्यते । नियम नहीं था। अतः इसकी मर्यादा निर्दिष्ट करनेके लिये अथवा मर्यादाकरणार्थ मध्यदीपिकान्या मध्यदीपिकान्यायके लिये* यह विशेषण दिया गया है, क्योंकि यार्थ वा विशेषणम् ; असदा- यह उपमदनविधि हमलोगोंमें भी दिष्वप्युपसदनविधेरिष्टत्वात् । माननीय है। किमित्याह-कस्मिन्नु भगवो शौनकने क्या पूछा, सो बत- लाते हैं-भगवः-हे भगवन् ! विज्ञाते नु इति वितर्के, भगवो ‘कस्मिन्नु' किस वस्तुके जान लिये जानेपर यह सब विज्ञेय पदार्थ हे भगवन्मर्व यदिदं विज्ञेयं विज्ञात-विशेषरूपसे ज्ञात यानी विज्ञातं विशेषण ज्ञातमवगतं भव- अवगत हो जाता है ? यहाँ 'नु' का प्रयोग वितर्क ( संशय ) के तीति एकस्मिज्ञाते सर्वविद्भव- लिये किया गया है। शौनकने नीति शिष्टप्रवादश्रुतवाञ्शोनकस्त- 'एकहीको जान लेनेपर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है' ऐसी कोई द्विशेषं विज्ञातुकामः सन्कस्मिन् सभ्य पुरुषोंको कहावत सुनी थी। उसे विशेषरूपसे जाननेकी न्विति वितर्कयन्पप्रच्छ । इच्छासे ही उसने 'कस्मिन्नु' इत्यादि अथवा । रूपसे वितर्क करते हुए पूछा । लोकसामान्यदृष्टया अथवा लोकोंकी सामान्य दृष्टिसे ज्ञात्वैव पप्रच्छ । सन्ति लोके जान-बूझकर हो पूछा । लोकमें
- देहलीपर दीपक रखनेसे उसका प्रकाश भीतर-बाहर दोनों ओर पड़ता
है-इसीको मध्यदीपिका या देहलीदीपन्याय कहते हैं । अतः यदि यह कथन इस न्यायसे ही हो तो यह समझना चाहिये कि गुरूपसदन-विधि इससे पूर्व भी थी और उससे पीछे हमलोगों के लिये भी आवश्यक है; और यदि यह कथन मर्यादा निर्दिष्ट करने के लिये हो तो यह समझना चाहिये कि यहींसे इस पद्धतिका प्रारम्भ हुआ।