पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१२६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ यह यही बात आगेकी ] ऋचाने भी कही है जो अधिकारी क्रियावान् श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ और स्वयं श्रद्धापूर्वक एकर्षि नामक अग्निमें हवन करनेवाले हैं तथा जिन्होंने विधिपूर्वक शिरोव्रतका अनुष्ठान किया है उन्हींसे यह ब्रह्मविद्या कहनी चाहिये ॥ १० ॥ तदेतद्विद्यासम्प्रदानविधान विद्यासम्प्रदानकी विधि मृचा मन्त्रेणाभ्युक्तमभिप्रका- आगेकी ऋचा यानी मन्त्रने भी शितम्- प्रकाशित की है- क्रियावन्तो यथोक्तकर्मा जो क्रियावान्-जैसा ऊपर बतलाया गया है वैसे कर्मानुष्टानमें नुष्ठानयुक्ताः, श्रोत्रिया ब्रह्म- लगे श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ निष्ठा अपरमिन्ब्रह्मण्यभियुक्ताः यानी अपरब्रह्ममे लगे हुए और परब्रह्मभुत्मनः म्वयमेकर्पि- परब्रह्मको जाननेके उच्छुक तथा नामानमग्निं जुह्वते जुह्वति श्रद्ध- स्वयं श्रद्धायुक होकर एकर्पि नामक अग्निमे हवन करनेवाले है उन्ही यन्तः श्रद्दधानाः मन्तो ये तेपाम् शुद्धचिन एवं ब्रह्मविद्या के पात्रभृत एव संस्कृतान्मनां पात्रभूनानाम् अधिकारियोंको यह ब्रह्मविद्या एतां ब्रह्मविद्यां वदेत बयान बतलानी चाहिये, जिन्होंने कि शिरपर अग्नि धारण शिरोव्रतं शिरस्यग्निधारणलक्षणम्, शिरोवतका–जैसा कि अपर्व- यथाथवणानां वेदव्रतं प्रसिद्धम्। वैदियोंका वेदवत प्रसिद्ध है- विधिवत्-शास्त्रोक्त विधिक यस्तु यश्च तच्चीर्ण विधिवद्यथा- अनुसार अनुष्ठान किया है, उन्हींसे विधानं तेषामेव च ॥ १० ॥ यह विद्या कहनी चाहिये ॥१०॥ करनारूप