१०८ मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक ३ नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिङ्गात् । एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वां- स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥ ४ ॥ यह आत्मा बलहीन पुरुपको प्राप्त नही हो सकता और न प्रमाद अथवा लिङ्ग ( संन्यास ) रहित तपम्यासे ही [ मिल सकता है । परन्तु जो विद्वान् इन उपायोंसे [ उसे प्राप्त करनेके लिये ] प्रयत्न करता है उसका यह आत्मा ब्रह्मवाममें प्रविष्ट हो जाता है ॥ ४ ॥ यस्मादयमात्मा बलहीनेन यह आत्मा बलहीन अर्थात् बलप्रहीणेनात्मनिष्ठाजनितवीय- आत्मनिष्टाजनित शक्तिसे रहित हीनेन न लभ्यो नापि लौकिक- पुरुपद्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है: न लौकिक पुत्र एवं पशु आदि पुत्रपश्वादिविषयसङ्गनिमित्त- विषयोंकी आसक्तिके कारण होन- प्रमादात् , तथा तपसो वाप्य- वाले प्रमादमे ही मिल सकता है लिङ्गाल्लिङ्गरहितान । तपो- और न लिङ्गरहित तपम्यामे हो । ऽत्र ज्ञानमः लिङ्गं मंन्यामः । यहाँ तप ज्ञान है और लिङ्ग संन्यासरहिताज्ज्ञानान्न लभ्यत संन्यास । तात्पर्य यह कि संन्यास- रहित ज्ञानमे प्राम नही होता । इन्यर्थः । एतैरुपायैबलाप्रमाद- जो विद्वान यानी विवेकी आत्मवेत्ता संन्यामज्ञानैर्यतते तत्परः सन्प्र-तत्पर होकर बल, अप्रमाद, संन्यास यतते यस्तु विद्वान्विवक्यात्म- [-इन उपायोसे [ उसकी प्राप्तिके लिये] प्रयत्न करता है उस वित्तस्य विदुष एष आत्मा विशते विद्वान्का यह आत्मा ब्रह्मधाममें संप्रविशति ब्रह्मधाम ॥ ४॥ सम्यकरूपसे प्रविष्ट हो जाता है।॥४॥ और ज्ञान-
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