पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१०२

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९४ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ वक्ष्यति च-"न येषु जिझम- जैसा कि आगे ( प्रश्नोपनिषदें ) नृतं न माया च" (प्र. कहेंगे भी* 'जिन पुरुषोंमें कुटिलता, उ० १ । १६ ) इति । अनृत और माया नहीं है' इत्यादि । कोऽसावात्मा य एतैः साध जो आत्मा इन साधनोंसे प्राप्त किया जाता है वह कौन है- नैर्लभ्य इत्युच्यते । अन्तःशरीरे- । इसपर कहा जाता है-'अन्तः- ऽन्तर्मध्ये शरीरस्य पुण्डरीकाकाशे शरीरे' अर्थात् शरीरके भीतर पुण्डरीकाकाशमें जो ज्योतिर्मय ज्योतिर्मयो हि रुक्मवर्णः शुभ्रः । सुवर्णवर्ण शुभ्र यानी शुद्ध आत्मा शुद्धो यमात्मानं पश्यन्त्युपलभन्ते है, जिसे कि क्षीणदोष यानी जिनके क्रोधादि मनोमल क्षीण हो यतयो यतनशीलाः संन्यासिनः गये हैं वे यतिजन-यत्नशील क्षीणदोषाः क्षीणक्रोधादिचित्त- संन्यासी लोग देखते अर्थात् उपलब्ध करते हैं । तात्पर्य यह है कि वह मलाः । स आत्मा नित्यं सत्या- आत्मा सर्वदा सत्यादि साधनोंसे ही दिसाधनैः संन्यासिभिलभ्यते । संन्यासियोंद्वारा प्राप्त किया जा न कादाचित्कः सत्यादिभिः | सकता है—कभी-कभी व्यवहार किये जानेवाले सत्यादिसे प्राप्त नहीं लभ्यते । सत्यादिसाधनस्तु- होता । यह अर्थवाद सत्यादि त्यर्थोऽयमर्थवादः॥ ५॥ साधनोंकी स्तुतिके लिये है ॥५॥ . सत्यकी महिमा सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ।

  • इस भविष्यत्कालिक उक्तिसे विदित होता है कि उपनिषद्भाष्यके विद्यार्थियों

को मुण्डकके पश्चात् प्रश्नोपनिषद्का अध्ययन करना चाहिये ।