पृष्ठ:मीराबाई का काव्य.djvu/५८

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- - भक्ति-पीयूष सीमा1 (वार्ता) ०७:२२, २० अक्टूबर २०१९ (UTC) ०७:२२, २० अक्टूबर २०१९ (UTC)~ तू मत बरजे माइड़ी', साधा दरसण जाती। राम नाम हिरदै बसै, माहिले मन माती । माई कहै, सुन धीहड़ी, कहे गुण फूली ॥ लोक सोवै सुख नीदड़ी, यूं क्यों रैणज' भूली ? गेली दुनियाँ बावली, ज्याँ | राम न भावै । ज्याँ के हिरदे हरि बसे, त्यां] नींद न आवै ।। चौबास्यां' की बावड़ी, ज्याँ कूँ नीर न पीजे । हरि नाले अमृत झरे, ज्याँ की आस करीजे ॥ रूप सुरङ्गा राम जी, मुख निरखत लीजे । 'मीरा' व्याकुल विरहिणी, अपणी कर लीजे ॥ राणाजी मुझे यह बदनामी लगे मीठी । कोइ निन्दो कोइ बिन्दो', मैं चलूँगी चाल अपूठी ।। सांकली१० गली में सतगुरु मिलिया, क्यूँ कर फिरूँ अपूठी । · सतगुरु जी तूं बावज१ करताँ दुरजन लोगां ने दीठी ॥१२ 'मीरा' के प्रभु गिरधर नांगर, दुरजन जलो जा अंगीठी । १-हे माता । २-साधुओं के । ३-अपने रंग में मगन हूं। ४-बेटी। ५-रात्रि में । ६-पगली । ७-वर्षाऋतु की। ८-चाहे कोई मेरी प्रशंसा करे । ६-उल्टी । कबीर ने भी कहा है- ___ 'प्रेम गली अति सांकरीता मे दो न समाय, । १०-संकरी, संकीर्ण । ११-बातें करते । १२-देखा ।