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मिश्रबंधु

४४१ मिश्रबंधु-विनोद स्वारथ के बस बिन एकता विहाल खेद , हिंदुन की हीन दसा छेद करै छाती में। तान तुक तिल औ' तमोल को न लीजे नाम , असन-बसन विन केते बिललात हैं। तापि-ताप सिगरी बितावति हैं राति, भोर , होत ही तनि • तेज ताकत धमात हैं। अस्थि-चर्म ही है अवशिष्ट देह-पंजर में , सभ्यताभिमानी देख दूर ते घिनात हैं। कीजै रघुनंदन' सहाय ऐसे दीनन की। शिशिर सताए अबुलाए गरे जात हैं। नाम-( ४१०८) राघवप्रसादसिह 'महंत', (राघव) बैनो ग्राम, जिला दरभंगा। जन्म-काल-सं० १९४५ ॥ कविता-काल-सं० १९६५ (सन् १९०८)। अंथ---(१) राष्ट्रीय संगीत, (२) कथा-मंजरी (शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाली है), (३) बालक-रामायण । विवरण- श्राप द्रोणाचार मूल के भूमिहार ब्राह्मण, बाबू जगदेव- नारायणसिंह के पुत्र तथा अपने प्रांत के एक प्रतिष्ठित ज़मींदार हैं। श्राप बिहार-प्रादेशिक साहित्य-सम्मेलन के जन्म-दाताओं में से हैं। बाल-साहित्य के पुष्टि-वर्धन में आप विशेषकर योग दे रहे हैं। कविता अच्छी करते हैं। उदाहरण- जननी तुअ पद कोटि प्रणाम । चमकत सुभग सुकुट तव सिर पै शैलराज हिम-धाम 3; सुर-नर-मुनि सबके मन-मोहत सुखकर दृश्य ललाम ।