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मिश्रबंधु

सं० १९५१ पूर्व नूतन श्रापने दवा की, तथा इटली, आस्ट्रिया, जर्मनी, हालैंड, इंगलैंड, फ्रांस और स्विटज़रलैंड देखे । अनंतर नीरोग होकर भी आपने उसी संवत् में नौकरी से पेंशन ले ली। सं० १९८४ में इन्होंने रायबहादुर की उपाधि पाई। इन्होंने पद्य-रचना १५ वर्ष की श्रवस्था से प्रारंभ की थी, परंतु प्रथम ग्रंथ लवकुश चरित्र सं० १९५५ में अपने ज्येष्ठ भ्राता श्यामविहारी मिश्र के साथ अलीगढ़ बनाया। सरस्वती पत्रिका के निकलने के साथ इन्होंने गध लिखना प्रारंभ किया । ग्रंथों के विषय में जो कुछ श्यामविहारी मिश्र के वर्णन में लिखा है, वही इनके विषय में भी समझना चाहिए, क्योंकि इन दोनो की प्रायः सब हिंदी रचनाएँ साझे ही में बनी हैं। संवत् १९८६ में आप पटना-विश्वविद्यालय में अवैतनिक रामदीन रीडर एक साल के लिये नियुक्त हुए । आपने नियमानुसार आठ व्याख्यान दिए । विषय था भारत के इतिहास पर हिंदी-साहित्य का प्रभाव । इस पर ३३४ पृष्ठों का एक ग्रंथ बन गया, जो छप चुका है। उदाहरण- बालमीकि व्यास कालिदास भवभूति आदि, लाडिले सुतन को न तेरे विसरायों मैं ; पंगु सम तऊ गिरि लंधन को धाय मातु, तो सुत वनन हेतु लालसा बढ़ायों मैं । भ्रातन के धवल सुजस केवल कराल कालिमा को चपकायों मैं राखु सातु सारदा दया की दीठि फेरु तऊ, साहस के अव तौ सरन तकि प्रायों मैं । कपूत वनि,

X X X x पिंगल सों छाँटि सव सुंदर सरस छंद, करुना कै देवि यहि रचना मैं धारा करु ;