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मिश्रबंधु

१८० मिश्रबंधु-विनोद सं० १९४७ यह घर का काम-काज सँभालने लगे । इनके बड़े पुत्र राजकिशोर अमेरिका से इंजीनियरी की शिक्षा प्राप्त कर कपड़े की मिलों में उच्च पद पर हैं । इनके दो विवाह भागे-पीछे हुए, पर दोनो स्त्रियाँ पंचत्व को प्राप्त हो गई । इन्होंने मित्रों के आग्रह पर भी तीसरा विवाह नहीं किया। आपने देवकवि कृत प्रेम-चंद्रिका, राग-रताकर और सुजान-विनोद को टिप्पणी समेत संपादित करके नागरी-प्रचारिणी सभा-ग्रंथमाला में प्रकाशित कराया। कुछ छंद भी इन्होंने बनाए हैं, पर इस ओर विशेष रुचि नहीं है । गद्य-रचना श्राप बहुत करते आए हैं। हिंदी-नवरत्न और मिश्रबंधु-विनोद अपने दो भाइयों के साथ आपने बनाए। उदाहरण मथन लगे जब सिंधु देवदानव मिलि सारे , कढ़े त्रयोदश रन सबै परभा अति धारे । लियो सबन तिन बाँटि कढ़यो तव विषम हलाहल , लगे जरन लव लोक दूरि भाग्यो धीरज वल । तव पान कियो जेहि विपम विष तीनि लोक तारन तरन, सोइ आसुतोप संकट सकल हरहु संभु असरन सरन । १ । मन भावन छैल छबीलो लखौ इत राधिका प्रेम प्रभा सों सनी

उत कान्ह वजावत बाँसुरिया दुहुँ मोरन सों लुपमा है धनी । इत राधिका भूलत झूला भले, चमक जुत भूपण जामैं कनी जड़ी हीरन सों गहने पहने छबि देखिए जोरी अनूप बनी। -( ३४७५) ठाकरप्रसाद खत्री, काशी। इनका जन्म सं० १९२२ में हुआ । श्रापने काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा में बहुत दिन काम किया, तथा बैपारी और कारबारी-नामक पन्न भी निकाला, जो बड़ा उपयोगी था। व्यापार आदि उपयोगी विषयों पर कई पुस्तकें लिखीं, और इसी प्रकार के बढ़िया लेख लिखने

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