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मिश्रबंधु
     मिश्रबंधु-विनोद                   १४८

बनाए । इस विशाल विषय की नूतन परिपाटी-काल के लेखकों द्वारा अच्छी अंग-पुष्टि हुई है।

पुराणों के धर्म पर बहुतों ने नहीं लिखा है। वास्तव में बौद्ध विचारों के आक्रमणों द्वारा वैदिक धर्म का अंत हो गया और हिंदू-समाज ने एक दूसरा ही धर्म चलाया, जिसे पौराणिक कहते हैं। इस नवोदित धर्म में कुछ सिद्धांत वैदिक मत के थे, कुछ बौद्ध एवं जैन के और कुछ नवीन आगंतुकों के प्रभाव से सामाजिक विचारों के परिवर्तन द्वारा सिद्ध किए हुए नव धार्मिक एवं सामाजिक प्राचारों और विचारों के । इसने वैदिक धर्म में माने हुए कई विचारों को विना निंद्य ठहराए ही चुपके-से छोड़ दिया, तथा प्राचीन एवं नवीन सिद्धांतों को लेकर नए धर्म के अंग-प्रत्यंग बड़े चातुर्य से सुगठित करके उसे एक सुचारु रूप दिया। इस नव धर्म-विकसन में मुख्य श्रेय उन दशाओं का था, जिनमें हमारे समाज ने अपने को पाया । महात्मा गौतमबुद्ध का प्रादुर्भाव सवत् पूर्व छठवीं शताब्दी में हुआ तथा सम्राट अशोक का संवत् पूर्व तीसरी शताब्दी में । महात्मा बुद्धदेव द्वारा चलाया हुआ हीनयानीय बौद्ध-धर्म अशोक के पहले बहुत करके गृह-त्यागियों का संप्रदाय-मात्र रहा, न कि गृहस्थों का धर्म । साधारण समाज पर तब तक उसका प्रभाव बहुत नहीं था । अशोक ने बौद्ध तथा कई जैन-सिद्धांतों में से गृहस्थों द्वारा पालित होने योग्य विचार चुनकर काम-काजू धर्म उपस्थित किया, जो उनके प्रभाव तथा अपनी धार्मिक एवं उप-देशकों की उच्चता के कारण समाज के एक बड़े अंश में स्थापित हुआ। उनके बौद्ध होने के कारण वह माना बौद्ध धर्म ही गया। अपने ऊँचे-से-ऊँचे फैलाव-काल में भी बौद्ध-धर्म के अनुयायी संख्या में हिंदुओं से कम थे, ऐसा अनुमान प्राचीन ग्रंथों के देखने से होता है। गृहस्थों में आने से प्राचीन हिंदू-विचारों का प्रभाव बौद्ध-