पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/९८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिवर्तन-प्रकरण १०२६ यह रामराय रहस्य दुरलभ परम प्रतिपादन कियो; श्रीराम करुना करि लहियाविन तासु नहिं पावन वियो। श्रुतिसार सर्बसु सर्व सुकृत विपाक जिय जानो यही; रघुबीर व्यास प्रसाद ते पायो कह्यो |तुमसों सही । नाम-(१४६1) कृष्णसिंह । १८६५ के पूर्व-ग्रंथ उदधि- संथिनी टीका। नाम-(१७९२) किशोरदास, पीतांबरदास के शिष्य निबार्क संप्रदाय के। ग्रंथ-(१) निजमनसिद्धांतसार, (२) गणपतिमाहात्म्य, (३) अध्यात्मरामायण । [प्र. ० रि०] रचनाकाल-१६००। विवरण-प्रथम अंथ में भक्तों के विस्तारपूर्वक कथन, एवं मन के सिद्धांत वर्णित हैं। इसके तीन खंड ५५८ सफा फुलस्कैप साइज़ के हैं। यह ग्रंथ हमने दरबार छतरपूर में देखा है । काव्य-लालित्य साधारण श्रेणी का है। उदाहरण- लखि दारा सब सार सुख, परसत हसत उदार; मरकट जिमि निरतत हसत सिकिलि उतारि-उतारि । बढ़त अधिक ताते रस रीती; घटत जात गुरुजन पर प्रीती। सीखत सुनत विषय की बातें; ऐंठत चलस निरखि निज गाते। बल दैवाँधत पाग बिसाला; पँच रँग कुसुम गुच्छ उर माला । हास करत पितु मातु ते, अटत करत उतपाव धन दै करि निज बाम को, पितु जननी तजि भात । नाम-(१७६३) कृष्णानंद व्यास, गोकुल। अंथ-गसागरोद्भव रागकल्पद्रुम संग्रह । रचनाकाल-१६००।