पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/९०

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परिवर्तन-प्रकरण १०२० कवि रहते थे । इसी कारण बहुतेरे द्वेषी मनुष्यों ने उड़ा दिया था कि ये महाराज स्वयं कवि न थे, वरन् लछिराम कवि से बनवाकर अपने नाम से कविता प्रकाशित करते थे। यह बात सर्वथा अशुद्ध थी और इससे ऐसी बातें उड़ानेवालों की क्षुद्रता प्रकट होती है । वास्तव में इनकी कविता के बराबर लछिराम का कोई भी ग्रंथ या छंद नहीं पहुँचता । ये महाराज शाकद्वीपी ब्राह्मण थे । अपने मरण-काल में ये अपने दौहिन महामहोपाध्याय महाराजा सर प्रतापनारायणसिंह के० सी० आई० ई० उपनाम 'ददुमा साहब' को अपना उत्तराधिकारी नियत कर गए थे। कुछ समय बीता, जब महाराज ददुआ साहब ने 'रसकुसुमाकर' नामक एक भाषा-साहित्य का मनोरंजक सचित्र संग्रह प्रकाशित किया था। इसमें द्विजदेवजी के बहुत से छंद हैं। इनके भतीजे भुवनेशजी ने लिखा है कि इन्होंने श्रृंगार-बत्तीसी और भंगारलतिका-नामक दो ग्रंथ बनाए । इनका द्वितीय ग्रंथ हमारे पास वर्तमान है, जिसमें १०५ पृष्ठ हैं। ये महाराज ब्रजभाषा में ही कविता करते थे। इनकी, भाषा बड़ी ललित और कविता परममनोहर होती थी। इन्होंने अनुप्रास का अच्छा प्रयोग किया है । इनका षट्ऋतु बहुत ही बढ़िया बना है, और शेष ग्रंथ में भंगार-रस के स्फुट छंद हैं । इनकी कविता में बहुत-से परमोत्तम छंद हैं, जिनके बराबर बड़े-बड़े कवियों के अतिरिक्त साधारण कवियों के छंद नहीं पहुँचते। इनके शेष छंद भी खुरे नहीं हैं। हम इनको पद्माकर की श्रेणी में रखते हैं। उदाहरण लीजिए- सोंधे समीरन को सरदार, मलिंदन को मनसा फलदायक ; किंसुक-जालन को कलपद्म, मानिनी बालन हूँ को मनायक । कंत इकत अनंत कलीन को, दीनन के मन को सुखदायक ; साँचो मनोभव राज को साज, सु आवत श्राजु इतै ऋतुनायक ।