पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/८९

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१०२० मिश्रबंधु-विनोद राजा शिवप्रसाद का हिंदी पर यह ऋण सदा बना रहेगा कि यदि वह समुचित उद्योग न करते, तो संभव है कि शिक्षा विभाग में हिंदी बिलकुल स्थान ही न पाती, और नितांत आधुनिक भाषा उर्दू ही उत्तरीय भारतवर्ष की एक-मात्र देशी भाषा बन बैठसी । महर्षि दया- नंद सरस्वती ने देश और जाति का जो महान् उपकार किया, उसे यहाँ पर लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। अनेक भूलों और पाखंडों में फसे हुए लोगों को सीधा मार्ग दिखलाकर उन्होंने वह काम किया है, जो अपने-अपने समय में महात्मा गौतम बुद्ध, स्वामी शंकराचार्य, रामानंद, कबीरदास, बाबा नानक, बल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु और राजा राममोहन राय समय-समय कर गए । हम आर्य- समाजी नहीं हैं, तो भी हमारी समझ में ऐसा आता है कि हम लोगों का जो वास्तविक हित इस ऋषि के प्रयत्नों द्वारा हुआ और होना संभव है, उतना उपर्युक्त महात्माओं में से बहुतों ने नहीं कर पाया । दयानंदजी ने हिंदी में सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, इत्यादि अनुपम ग्रंथ साधु और सरल भाषा में लिखकर उसकी भारी सहा- यता की, और उनके द्वारा स्थापित आर्य-समाज से उसका दिनोंदिन हित हो रहा है। तेंतीसवाँ अध्याय द्विजदेव-काल (१८९०-१९१५) (१७८३) महाराजा मानसिंह, उपनाम द्विजदेव ये महाराजा अयोध्या-नरेश तथा अवध-प्रदेशांतर्गत ताल्लुक्के दारों की एसोसिएशन (सभा) के सभापति थे। इनका स्वर्गवास संवत् १९३० में संभवतः पचास वर्ष की अवस्था में हुआ था। ये महाशय कवियों के कल्पवृक्ष थे। इनके आश्रय में बहुत-से