पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/८४

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परिवर्तन-प्रकरण दूसरी भाषा का ढूँढ़ना कठिन है, और इस अंग की प्रौढ़ता हमारी भाषा में प्रायः एकदम अद्वितीय और अभूतपूर्व है, तो भी मानना ही पड़ेगा कि कम-से-कम उत्तरालंकृत काल में इस अंग की पूर्ति में आवश्यकता से कहीं अधिक श्रम कर डाला गया । इसके अतिरिक्त उस समय कवियों का झुकाव शृंगार रस की ओर इतना अधिक रहा कि उनमें से अधिकांश का रुझोन दूसरे विषयों पर न हो सका । हमारी समझ में पूर्वालंकृत काल तक हिंदी को जितने आभूषण पिन्हाए जा चुके थे, उन पर यदि हमारे कविजन संतोष कर लेते, और शृंगार रस को छोड़ उपकारी बातों का उचित आदर करते, तो भाजदिन हमें अपने भाषा-भंडार में नूतन विषयों की न्यूनता पर शोक न प्रकट करना पड़ता । स्मरण रखना चाहिए कि उत्तरालंकृत काल में, जब कि हमारे यहाँ लोग भाषा को बाहाडंबरों से ही सुसजित करने में विशेष रूप से बद्धपरिकर थे । अन्य देशी भाषाएँ और ही छटा दिख- लाने लगी थीं । बंगला में भी हमारे पूर्वालंकृत काल एवं उत्तरा- लंकृत काल के विशेषांश में भाषा अलंकृत रही, परंतु वहाँ संवत् १८७५ में ही श्रीरामपुर के पादरियों द्वारा एक समाचार-पन्न निकला और इसी समय से गद्य का प्रचार बढ़ने लगा । संवत् १८८५ के लग- भग मृत्युंजय-नामक लेखक ने बैंगला का प्रबोधचंद्रिका-नामक प्रथम गद्य-ग्रंथ लिखा। इसी कवि ने पुरुष-परीक्षा-नामक एक द्वितीय गद्य- ग्रंथ रचा । इसी समय ईश्वरचंद्र गुप्त ने संवाद-प्रभाकर-नामक एक उत्कृष्ट पत्र निकाला, और राजा राममोहन राय ने सुधावर्षिणी लेखनी से संसार को पवित्र किया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर और अक्षयकुमारदत्त बंगाली गद्य के मुख्य उन्नायक हो गए हैं। इनका रचनाकाल १६१० के लगभग था। इन्होंने बहुत ही उत्कृष्ट गध- ग्रंथ रचे, और इनके समय से प्रायः सभी विषयों में बँगला भाषा में बहुत अच्छी उमति की। इसी समयं के बंकिमचंद्र चटनी, मधुसूदन-