पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/३५१

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१२८२ मिश्रबंधु-विनोद पीछे आने लगा, पर किसी ने उसे जान नहीं पाया । शरीर से श्राप स्थूल थे, सो अस्वस्थता में भी अच्छे देख पड़ते थे । संवत् १९६३ में खाँसी शांत न होते देखकर हम लोगों ने इन्हें बहुत समझाया कि ये भोजन में पूरा बराव करें और दवा जमकर की जावे । उसी समय से आपने दवा पर अच्छा ध्यान दिया और पथ्य का भी पूरा विचार रक्खा, परंतु लाख-लाख दवा करने पर भी ईश्वरेच्छा के आगे कोई वश न चला और प्रायः एक वर्ष और रुग्ण रहकर संवत् १९६४ में २५ दिसंबर सन् १९०७ ई० को इनका शरीर-पात हो गया। विशालजी की प्रकृति बड़ी शांत थी, और इन्हें क्रोध आते हमने कभी नहीं देखा । आपसे मज़ान में कोई पेश नहीं पाता था। बड़े- बड़े उस्ताद मज़ाकिए श्रापसे पराजित हो गए। आपके साथ बैठने में चित्त सदैव प्रसन्न रहता था, चाहे जितना बड़ा दुःख ही क्यों न हो। आपमें समाचातुरी की मात्रा बहुत थी और हास्य-रस के तो श्राप आचार्य ही थे। हमारी कविता ये सदैव बड़े प्रेम से सुनते और हमें अपनी सुनाते थे। दूसरे की रचना आप इतनी पसंद करते थे कि यद्यपि लवकुशचरित्र एक परम साधारण ग्रंथ था, तथापि उसकी प्रशंसा में आपने एक छोटा-मोटा प्रायः १५० छंदों का ग्रंथ ही रच डाला । होली से संबंध रखनेवाले अश्लील विषयों पर भी आपने बहुत रचना की है। होलिकाभरण-नामक एक अलंकार- ग्रंथ आपने ऐसा रचा, जिसके प्रत्येक दोहे में अलंकार अश्लील वर्णन में निकाला । उसमें सब अलंकार आ गए हैं। इसी प्रकार नायिका- भेद के भी बहुत-से छंद इसी विषय में रचे गए । ये छंद सवैया एवं घनाक्षरी हैं और बहुत उत्तम बने हैं, परंतु कहीं पढ़ने योग्य नहीं हैं। आपने दोहा-चौपाइयों में एक श्रवणोपाख्यान बनाया था, परंतु वह गुम हो गया। पाप-विमोचन-नामक ८४ सवैया कवित्तों का आपने एक शंकर-स्तुति का ग्रंथ रचा था, जो अच्छा है । अपने मित्रों