पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/३५०

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वर्तमान प्रकरण यह हाल संवत् १९५३ के इधर-उधर का है। इसके पूर्व सिसेंडी के राजा चंद्रशेखर के इलाके में कुछ दिन आपने जिलेदारी की थी, पर उससे आपका जी इतना अथा था कि उसे छोड़कर श्राप भाग गए थे। गधौली से कविता सीखकर श्राप फिर लखनऊ में हमारे यहाँ रहने लगे। श्रापकी कई पुश्तों से कुछ संकल्प की भूमि ठाकुर रामेश्वरवस्श रईस परसेहँदी के इलाके में चली आती है। उसी के संबंध से आप ठाकुर साहब के यहाँ जाने-माने लगे और ठाकुर साहब के भी कविता-प्रेमी होने के कारण आपका उनसे प्रेम विशेष बढ़ गया। उनकी प्रशंसा के आपने बहुत-से छंद बनाए हैं। आपके पूर्व-पुरुप ठाकुर साहब के पूर्व-पुरुषों के गुरु थे, सो ठाकुर साहय इनमें भी गुरु-माव रखते थे। इसी भाव का एक विशालाष्टक रचकर ठाकुर साहब ने इनकी बड़ी प्रशंसा की है । कुछ काम न होने से आप उस प्रांत के कुछ अन्य रईसों के यहाँ भी जाने आने लगे। इनमें से ठाकुर दुर्गावन्श के श्राफ्ने उत्तम छंद रचे । ठाकुर अनिरुद्धसिंह और दीन कवि से प्रापका विशेपतया मित्र-भाव था। विशालजी प्रकृति से कुछ पालसी भी थे, सो कोई अन्य कार्य न होने पर भी आपने कविता बहुत नहीं बनाई। आपके कई पुन और कन्याएँ हुई, पर दुर्भाग्यन्धश उनमें से कोई भी जीवित नहीं रहीं । इनके मरण- काल में एक चार वर्ष का पुत्र था, पर वह भी इन्हीं के केवल २० दिन पीछे विस्फोटक रोग से मर गया। विशालजी विशेषतया मधुर- प्रिय थे। संवत् १९६१ में आपको कुछ खाँसी श्राने लगी, जो मधुर भोजन के कारण शांत न हुई । दूसरे वर्ष एक भारी फोड़ा हो गया जो इन्हें बेहोश करके चीरा गया । उसकी दवा में फूट साल्ट आदि 'खाने से फोड़ा तो अच्छा हो गया, परंतु खाँसी कुछ बढ़ गई। आपने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया और इसकी साधारण दवा होती रही। इसी के साथ कुछ हलका बुखार भी प्रायः छः मास के