पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/३४७

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१२७८ मिश्रबंधु-विनोद जगत-सचाई-सार तथा पद्यसंग्रह-नामक इनकी नौ कविता-पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। इस तरफ कुछ और छोटे-छोटे ग्रंथ आपने रचे हैं । पाठकजी ने खड़ी बोली तथा ब्रजभाषा दोनों की कविता परम · विशद की है, और इनका श्रम सर्वतोभावेन प्रशंसनीय है। गध के भी लेख इनके अच्छे होते हैं । इन्होंने अपनी रचना में पद- मैत्री की प्रधानता रखी है, और कुछ चित्रकाव्य भी किया है। आपने प्राचीन भंगार-रस-वर्णन की प्रणाली छोड़कर साधारण कामकाजी बातों का वर्णन अधिक किया है। उद्योग, परिश्रम, वाणिज्य आदि की प्रशंसा इनकी रचना में बहुत है । सामाजिक सुधारों पर भी इनका ध्यान है । इनकी रचना में अनुवादों की संख्या स्वतंत्र रचना से बहुत अधिक है, पर इनके अनुवाद स्वतंत्र-रचनाओं का-सा स्वाद देते हैं। आप लखनऊ के साहित्य-सम्मेलन में प्रधान रह चुके हैं। उदाहरण- ए धन स्यामता तो मैं घनी तन बिज्जु छटा को पितंवर राजै ; दादुर-मोर-पपीहा-मई अलबेली मनोहर बाँसुरी बाजै । सौ बिधि सों नवत्ता अबला उर पास विनास हुलास उपाजै ; जो कछु स्याम कियो ब्रजमंडल सो सब तू भुवमंडल साजै ॥१॥ उस कारीगर ने कैसा यह सुंदर चित्र बनाया है। कहीं पै जलमै कहीं रेतमै कहीं धूप कहिं छाया है। नव जोबन के सुधा सलिल में क्या बिष-बिंदु मिलाया है। अपनी सौख्य बाटिका में क्या कंटक-वृक्ष लगाया है ॥२॥ प्रानपियारे की गुन-गाथा साधु कहाँ तक मैं गाऊँ गावे-गाते नहीं चुकै वह चाहै मैं ही चुक जाऊँ ॥३॥