पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/३३७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२६८ मिश्रबंधु-विनोद अधिक रुचिकर हुई । गद्य में इन्होंने खड़ी बोली का प्रयोग किया है, और वह सर्वथा आदरणीय है । गद्य में हम लाला साहब को उत्तम लेखक समझते हैं । दोहा-चौपाइयों में इन्होंने अवध की भाषा का प्राधान्य रक्खा है, परंतु घनाक्षरी आदि में अवधी और ब्रजभाषा का मिश्रण कर दिया है। इन्होंने पद्य में खड़ी बोली का प्रयोग नहीं किया । इन महाशय ने गद्य के भी ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें सावित्री का वर्णन हमारे पास मौजूद है । श्रापने और भी बहुत. से छोटे-छोटे ग्रंथ धनाए हैं, जिनको यहाँ लिखने की कोई प्राव- श्यकता नहीं है, इधर इन्होंने कलकत्ता-विश्वविद्यालय के लिये हिंदी कविता का एक विशाल और उत्कृष्ट संग्रह तैयार किया है। इनकी गणना हम मधुसूदनदास की श्रेणी में करते हैं। उदाहरणार्थ इनके कुछ छंद नीचे लिखे जाते हैं..-- महाकाल जो बसत महेसा ; यह रहि तासु समीप नरेसा । पाख अँधेरेहु करत विहारा , शुक्लपक्ष सुख लहत अपारा ॥१॥ • राखत संयोग पास प्रान सों पियारि अाजु, करहुँ मनोरथ अनेक जिय धीर धरि ; आपन सोहाग मम जीवन अधार जानि, होहु ना निरास कछु चित्तहि उदास करि । यहि जग कौन सुख भोगत सदैव भूप, काहि पुनि दुःख एक रहत जनम भरि । ऊपर उठावत गिरावत धरनि पर, . चक्र-कोर-सरिस नचावत सबर्हि हरि ॥२॥ सुनत अप्सरन गीत मनोहर ; भए समाधि भंग नहि शंकर; जिन-निज चित्त-वृत्ति धरि साधी । सकै तोरि को तासु समाधी ॥ ३ ॥ बन लगत डाढ़ा प्रबल चहुँ दिसि भूमि सब लखियत जरी; तू चलत इत-उत उड़त सूखे पात रुखन सन झरी।