पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/३३६

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वर्तमान प्रकरण १२६७ नुवाद किया था और फिर संवत् १९४९ में उसे पूर्ण किया। फिर क्रमशः इन्होंने कालिदास-कृत मेघदूत, कुमारसंभव, ऋतुसंहार और भंगारतिलक का अनुवाद किया । रघुवंश और कुमारसंभव की रचना दोहा-चौपाइयों में, मेघदूत की घनाक्षरियों में, और शेष दोनों छोटे-छोटे ग्रंथों की विविध छंदों में हुई है। इस कवि ने कालिदास की कविता का चमत्कार लाने का उतना प्रयत्न नहीं किया जितना कि सीधी-सादी कथा कहने का । इसी कारण योरपियन समालोचकों ने तो इनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की, परंतु हिंदी के सब समालोचकों ने इनकी कविता को उतना पसंद नहीं किया। इन्होंने कविसम्मानित शब्दों को विशेष आदर नहीं दिया है, और जहाँ ऐसे शब्द पा सकते थे, वहाँ भी कहीं-कहीं अव्यवहृत शब्द रख दिए हैं। यह भी एक कारण था जिससे कि कविजनों ने इनकी कविता बहुत पसंद नहीं की। इन्होंने कालिदास की रीति पर चलक एक अध्याय में एक ही छंद रक्खा है और जैसे अंत के दो-एक छंदोर में कालिदास ने छंद बदल दिए हैं, उसी सरह इन्होंने भी किया है। यह रीति आदरणीय है, परंतु बहुत उत्कृष्ट कान्य न होने से एक ही 'छंद लिखने से वर्णन प्रायः अरुचिकर हो जाता है। इन सब बातों के होते हुए भी इन्होंने परिश्रम बहुत किया है और संस्कृत से अनभिज्ञ पाठकों का इनके ग्रंथों द्वारा उपकार अवश्य हुश्रा है। इन सब ग्रंथों में कोई विशेष दोष नहीं है, और इनकी भाषा श्रुतिकटु-दोष से रहित और मधुर है। इन सबमें मेघदूत और ऋतुसंहार की रचना अच्छी है। हमारे लाला साहब ने संस्कृत के कुछ नाटकों का भी उल्या किया है, जिनमें से मृच्छकटिक, महावीरचरित, उत्तर रामचरित, मालतीमाधव, मालविकाग्नि मित्र, और नागनंद हमने देखे हैं। इनकी रचना गद्य और पद्य दोनों में हुई है । हमको इनके अन्य ग्रंथों की अपेक्षा नाटक-रचना