पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/३१४

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वर्तमान प्रकरण १२४५ सन् १९१२ से ये कलकत्ता की युनिवर्सिटी के कॉलेज में वेद- व्याख्याता के पद पर काम कर रहे हैं। (२३४०) वलदेवदास , ये महाशय श्रीवास्तव कायस्थ, मौजा दौलतपूर, परगना कल्यानपूर, जिला फतेहपूर के रहनेवाले थे। स्वामी छीतूदासजी इनके मंत्रगुरु थे, जिनकी आज्ञा से इन्होंने संवत् १९३६ में जानकीविजय-नामक २३ पृष्ठ का एक ग्रंथ बनाया। इसकी कथा अद्भुत रामायण के आधार पर कही गई है। वास्तव में यह कथा बिलकुल निर्मूल है, क्योंकि अद्भुत रामायण कोई प्रामाणिक ग्रंथ नहीं है । बलदेवदास ने प्रधानतः दोहा-चौपाइयों में यह ग्रंथ लिखा है, परंतु कहीं-कहीं और भी छंद लिखे हैं । इन्होंने गोस्वामीजी के मार्ग का अधिकतर अवलंब लिया है, यहाँ तक कि दो-चार जगह उन्हीं के पद अथवा भाव भी इन्होंने अपनी कविता में रख दिए हैं। इनकी गणना कथा- . प्रसंग के कवियों में मधुसूदनदास की श्रेणी में की जा सकती है। राम रजाय सुनत सब बीरा ; सजे सबेग सेन रनधीरा । चले प्रथम पैदल भट भारी: निज-निज अस्त्र-शस्त्र सव धारी। मनिगनजटित चली रथ पाँती भरे विपुल आयुध बहु भाँती। चले तुरूंग बहु रंगबिरंगा, जुग पदचर प्रति सूरन संगा। असित बिलाल गात मातु महाकाल की सी, पीतपट देखि कै छटा की छवि छपकत ; राजे मुंडमाल रुडजात भुजदंड बाजू, __ भाल खग्ग खप्पर कृपान सान लपकत । . छूटे बिकराल बाल नैन बलदेव लाल, दिव्य मुख देखि कै दिनेस छत्रि झपकत; सालक के घालिबे को काली ने निकाली जीह, लाल-लाल लोहू ते लपेटी लार टपकत ।