पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२७७

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१२०८ मिश्रबंधु-विनोद जो कदाचि धन धाम बिलोका; तिन समान मानै त्रैलोका । जे धन हीन दीन मुख बाए ; जहँ-तहँ जाचर्हि पेट खलाए । नहिं जप जोग भोग मन लावा ; यह वह करत जरापन आवा। सन भा अबल बदन रदहीना ; तृष्णा तरुन होय तन छीना। __ अन इच्छित आई जरा, सहज राम सित केस; मनहुँ बिसिख सित पुखते, भेदेउ काल नरेस । जिमि-जिमि देह जरापन आवा; तिमि-तिमि तृष्णा तरुन कहावा । अन इच्छित तन बसी बुढ़ाई ; नीच मीच-भगनी दुखदाई। थके चरन कर कंपन लागे; प्रिय बालक जल देई न माँगे। खाँसि-खाँसि थूकहिं महि माहीं । सुन सुत-बधू देखि अनखाँहीं। चिंता मगन न लगन कछु, हरिपद पंकज धूरि । श्राइ गँवायो जनम जड़, मगन मनोरथ भूरि। (२१८३) जीवनराम भाट ये खजुरहरा जिला हरदोई-निवासी थे। इनका शरीर-पात प्रायः ६० वर्ष की अवस्था में हुआ था। ये अन्य भाटों की भाँति इधर- उधर घूम-फिरकर छंद पढ़कर ही अपना निर्वाह करते थे । जगनाथ पंडितराज-कृत गंगा-लहरी का भाषा पद्यानुवाद इन्होंने किया था। इनकी रचना साधारण श्रेणी की थी। उदाहरण- देखी मैं बरात रामलीला की इटौंजा मध्य, शोभा रूप धाम राजा राम को विवाह है; बोलें चोपदार धूम धौंसा की धुकार सुनि, चित्त नर नारिन के चौगुनो उछाह है। भारी भीर भूधर गयंदन की भीम घटा, साजे गजराज पै. बिराजे सीता-नाह है।