पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२७३

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१२०४ मिश्रबंधु-विनोद भवसागर को पार नहीं है तदपि पार मोहिं कीजै । जो कोउ दीन पुकारै प्रभु को अमित दोष दलि दीजै; सुनि बिनती बृषभानुकुंवरि की अब प्रभु मेहर करीजै । (२१८०) ललिताप्रसाद त्रिवेदी (ललित) यह मल्लावाँ जिला हरदोरी अवधप्रदेश के वासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और प्रायः कानपूर में रहा करते थे । इन्होंने कान्य से जीविका नहीं की, किंतु उसे अपने चित्तविनोदार्थ पढ़ा था। यह कानपूर में ग़ल्ले की दूकान पर मुनीबी का काम करते थे । काव्य का बोध इनको बहुत अच्छा था । हम इनसे दो-एक बार कानपुर में मिले हैं । इन महाशय ने रामलीला के वास्ते एक जनकफुलवारी- नामक ३० पृष्ठ का ग्रंथ निर्माण किया था और इसी के अनुसार गुरुप्रसादजी शुक्ल रईस कानपूर के यहाँ धनुषयज्ञ में लीला होती थी। इन्होंने इसमें ग्रंथ निर्माण का समय नहीं दिया, परंतु हमको अनुमान से जान पड़ता है कि यह संवत् १६४० के लगभग बना होगा।ललितजी का लगभग ६० वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हुआ। द्वि० ० खोज में "ख्यालतरंग" नामक इनका एक ग्रंथं और मिला है। इनकी कविता रोचक और सरस है। उसकी रचना राम- चंद्रिका के समान विविध छंदों में की गई है, और कविता प्रशंस- नीय है, परंतु रामचंद्र और विश्वामित्रजी की बातचीत जो अंत में कराई गई है वह अयोग्य हुई है। ऐसी बातें गुरु और शिष्य नहीं कर सकते । ललितजी के कुछ स्फुट छंद और समस्यापूर्तियाँ देखने में आती है। इन्होंने दिग्विजयविनोद-नामक एक ग्रंथ नायिकाभेद का महाराजा दिग्विजयसिंहजी के नाम पर संवत् १९३० में बनाया था, जो मुद्रित भी हो गया है, परंतु महाराजा साहब के यहाँ से इनको कुछ पारितोषिक इत्यादि नहीं मिला । शायद इसी कारण रुष्ट होकर इन्होंने कान्य से जीविका चलाना निय