पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२६३

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मिश्रबंधु-विनोद सिवजी-से जोगी को भी जोग सिखाना। पीना प्याला भर रखना वही खुमारी; साँची जोगिन पिय बिना वियोगिन नारी ॥२॥ भरित नेह नव नीर नित बरसत सुरस थोर; जयति अपूरब घन कोऊ लखि नाचत मन मोर ॥३॥ उठहु बीर रणसाज साजि जय ध्वजहि उड़ानो; लेहु म्यान सों खड्ग खींचि रन रंग जमाओ। परिकर कसि कटि उठौधनुष सों धरि सर साधौ; केसरिया बानो सजि-सजि रनकंकन बाँधौ। जो श्रारजगन एक होय निज रूप विचारें। तजि गृह कलहहिं अपनी कुलमरजाद सँभारें । तौ अमीरखाँ नीच कहा याको बल भारी; सिंह जगे कहुँ स्वान ठहरिहै समर मैंझारी। चीटिहु पद तल परे डसत है तुच्छ जंतु इक; ये प्रतच्छ अरि इन्हें उपेछै जौन ताहि धिक । धिक तिन कहँ जे प्रार्य होय यवनन को चाहैं ; धिक तिन कह जे इनसों कछु संबंध निबाहैं । उठहु बीर सब अस्त्र साजि माहु धन संगर, लोह-लेखनी लिखहु अज्जबल दुवन हृदै पर ॥ ४ ॥ सब भाँति दैव प्रतिकूल होय यहि नासा ; अब तजहु बीरबर भारत की सब पासा । अब सुख-सूरज को उदै नहीं इत है है ; सो दिन फिरि अब इत सपनेहूँ नहिं ऐ है !