पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२३६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिवर्तन-प्रकरण में श्रीकरणसिंहजी के नाम से एक ग्रंथ कर्ण-जन्त- मणि-नामक बनाया है । दूसरा ग्रंथ कुकविकुठार- नामक है। कविताकाल--१९२५। __ स्वयं दूतिका दिन है घरीक एक नेक तो बटोही सुन, मेरी कही मान ना सौ पाछे पछिताइ है। लस्कर चहूँघा फिरे तस्कर तमाम धाम, रहत अकेली धाम काहू न सहाइ है। बालम बिदेस छायो जोबन नरेश ऊधौ, पायो ना सँदेस याते मागत सहाइ है। , आखिर करोगे कहूँ रजनि निबेरा डेरा, याते इत रहो बेरा ढेरा चित चाइ है। नाम-( २१६३ ) राजभजनबारी, गजपुर, जिला गोरखपुर। ग्रंथ- स्फुट कान्य । कविताकाल---१९२१ । विवरण-राजा वस्ती के यहाँ थे। नाम-(३१६३) गोपालजो। विवरण-काठियावाड़ देशांतर्गत जेहिसवार प्रांस में स्वस्थान भावनगर राज्य के तावे सिहोर-नामक किस्सा में थे । राव (भाट) मालसिंह के गोपाल नाम का पुत्र हुा । इन्होंने लोका गच्छ के जैनसाधु पानावंदजी की संगति से कविता सीखी। इनका जन्मकाल १८सर का था। और संवत् १९२० में स्वर्गवासी हुए । इनका चंडीविलास नामक देवी-स्तुति का ग्रंथ है।