पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२१२

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परिवर्तन-प्रकरण ११४३ राजै जैतवार रघुराज नर नाहन मैं, चाहत पनाह मुख साह हू तके रहैं; विघरै प्रफुल्लित प्रजानि-पुंज बाँधौ राज, दुष्ट को कहा है बनराज हूँ जके हैं। वरने को पार लखनेस कृपा फोर जन, पोत सम पाय दुखसिंधु के थके रहैं जासु कर फैज मकरंद दान पान के के, ____ हमसे मलिंद गुन गान मैं छके हैं। पांजनि मैं, बन पुंजनि मैं, अलि गुंजनि मैं सुभ सब्द सुहात हैं; धेनु धनी, धरनी, धन, धाम मैं को बरनै नखनेस विख्यात हैं। थाघर जंगम जीवन को दिन जामिनि जानि न जात विहात है; है गयो कान्हमई ब्रज है सब देखें तहाँ नंदनंद देखात हैं। खोज में लक्ष्मीचरित्रा-नामक इनके एक दूसरे ग्रंथ का भी वर्णन है। (२०९१ ) डॉक्टर रुडाल्ल हार्नली सी० आई० ई० इनका जन्म संवत् १८९८ में, श्रागरा जिले में, सिकंदरा के पास हुश्रा था। ये महाशय कॉलेजों में अध्यापक रहे, और अंत में सरकार ने इन्हें पुरातत्व की जाँच पर भी नियत किया। इनका उत्तरीय भारत- चय भापा समुदाय के न्याकरणोंवाला लेख परम प्रसिद्ध एवं विद्वत्तापूर्ण है। इन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि हिंदी संस्कृत एवं प्राकृत से निकली है और अनार्य भाषाओं को शाखा नहीं है । इन्होंने विहारी-मापा का कोप एवं चंद-कृत रासो का भी संपादन किया, पर ये ग्रंथ अपूर्ण रह गए । डॉक्टर साहब ने जैन ग्रंथ "उवासगदस- रावो" भी प्रकाशित किया । इनका हिंदी-मापा से प्रगाढ़ प्रेम है और व्याकरण एवं भापायों की उत्पत्ति के विषय में इनका प्रमाण माना जाता है। अब ये विलायत चले गए है। .