पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२०९

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११४० मिश्रबंधु-विनोद विचारों के अनुकूल है । इससे अवस्थीजी की स्वाभाविक बुद्धि-प्रखरता प्रकट होती है। अवस्थीजी ने समस्या पूर्ति पर भी बहुत-सी रचना की है। आशु कविता का भी इन्हें अच्छा अभ्यास था, यहाँ तक कि इन्होंने बीस-पच्चीस साल से यह दर्पोक्ति का वचन कह रक्खा था कि- "देह जो समस्या तापै कवित बनाऊँ चट; कलम रुकै तौ कर कलम कराइए।" इस कथन के पुष्ट्यर्थ इन्होंने वहुत-से छंद बहुत स्थानों पर बनाए, परंतु कहीं इनकी कलम नहीं रुकी । इन्होंने व्रजभाषा में कविता की है और वह अच्छी है। इनकी कविता के उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं- (द्विज बलदेव-कृत) कहा है है कळू नहिं जानि परै सब अंग अनंग सों जोरि जरे; उतै बीथिन मैं बलदेव अचानक दीठि प्रकाशक प्रेम परे । हसि के गे अयान दया न दई है सयान सबै हियरे के हरे; चले कौन ये जात लिए मन सो सिर मोर की चंद्रकला को धरे। सागर सनेह सील सजन सिरोमनि त्यों, हंस कैसो न्याव लोक लायक के लेख्यो है; गुन पहिँ चानिधे को कंचन कसौटी मनौ, द्विज बलदेव विश्व विशद विशेख्यो है। पाछे रहो जौलों लोक लोसस सुजस जूह, धरम धुरंधर रुचिर रीति रेख्यो है; राधाकृष्ण प्रेमपान महाराज राजन मैं, ___ इंद्रविकरमसिंह जंबूदीप देख्यो है। खुर्द घटै बट्टै राहु गसै बिरही हियरे घने घाय धला है। सो सौ कलंकित त्यों विष बंधु निसाचर बारिज बारि बला है।